249. कर्म की महत्ता

श्री गणेशाय नमः

श्री श्याम देवाय नमः

हमारे ग्रंथों में उल्लेखित है कि— आत्मा का उद्देश्य ही कर्म करना है। कर्म शरीर, वाणी और मन से किए जाते हैं। कर्म के अभाव में कोई भी जीव अपना अस्तित्व नहीं रख सकता। जहां शरीर है, वहां कर्म आवश्यक होता है। सिर्फ विचारों से संसार नहीं बन सकता। विचारों को मूर्त रूप देने के लिए काम तो करना ही होता है। कितना भी बड़ा मनुष्य क्यों ना हो, सिर्फ सत्संग या उपदेश देकर या सुनकर सब कुछ प्राप्त नहीं कर सकता। अभीष्ट की प्राप्ति तो कर्म से ही संभव है।

प्रत्येक कर्म का नियत परिणाम होता है। परिणाम कारण में वैसे ही निहित रहता है जैसे बीज में वृक्ष। पानी को सूर्य सुखा देता है। गर्मी और पानी के मिलने से यह परिणाम होगा ही। सारा संसार कर्म के अपरिवर्तनीय नियमों के अनुसार ही विकसित होता है। प्रत्येक कर्म का हमारे ऊपर तुरंत परिणाम होता है। किसी के चाहने या न चाहने से कुछ नहीं होता। उसके मन की प्रत्येक वृत्ति उसके चरित्र पर अमिट छाप डाली देती है और उसके चरित्र का विकास उसी के अनुसार अच्छा या बुरा होता है। यदि मैं आज बुरा विचार करूं तो कल अधिक तत्परता और आग्रह से वैसा करूंगा। यही बात अच्छे विचारों के बारे में भी है। यदि मैं आत्म-निग्रह करता हूं या शांत होने का प्रयत्न करता हूं तो अगली बार यह क्रिया अधिक सरल हो जाएगी।

हमारे प्राचीन ग्रंथों में अद्भुत विचारों का समृद्ध भंडार भरा है। यदि हम उन विचारों के अनुसार कर्म न करें तो हमें कभी भी सद्जीवन की प्राप्ति नहीं हो सकती। सद्जीवन की प्राप्ति के लिए, उच्च विचारों के अनुरूप सद्कर्म करने की आवश्यकता होती है। कर्म के अभाव में फल प्राप्ति का स्वप्न भी नष्ट हो जाता है। हमें हमेशा यह भी स्मरण रखना चाहिए कि कोई विचार चाहे कितना ही आदर्श और उत्तम क्यों न हो, वह कर्म के अभाव में मूर्त रूप नहीं ले पाएगा।

जीवन रूपी पथ के हम यात्री हैं। हमारी यात्रा तभी सफल और मंजिल तक पहुंचने में कामयाब होगी, जब हम सावधानी पूर्वक शुभ कर्म करते हुए यात्रा करेंगे। सड़क के किनारे बोर्ड पर जगह-जगह लिखा होता है— सावधानी हटी, दुर्घटना घटी। यह सावधानी अत्यंत आवश्यक है। यह तभी होगा, जब हम जीवन में शुभ कर्मों को प्रधानता देंगे।

गौतम बुद्ध से राजकुमार श्रोण ने दीक्षा ली और अत्यधिक कठोर अनुशासन और तप का जीवन गुजारने लगे। इससे उसकी काया सूख गई। शरीर के नाम पर हड्डियों का ढांचा ही बचा था।
बुद्ध को उसकी हालत समझ में आ गई कि— श्रोण की ऐसी हालत उसकी कठोर तपस्या के कारण ही है।
उन्होंने श्रोण से कहा कि— मैंने सुना है, तुम सितार बहुत अच्छा बजाते हो‌। क्या मुझे सुना सकते हो? श्रोण ने पूछा कि— आप अचानक सितार क्यों सुनना चाहते हो?
बुद्ध ने कहा कि— न सिर्फ सुनना चाहता हूं बल्कि सितार के बारे में जानना भी चाहता हूं।
मैंने सुना है यदि सितार के तार बहुत ढीले हों या बहुत कसे हुए हों तो उनसे संगीत पैदा नहीं होता। श्रोण ने कहा— आपने बिल्कुल ठीक सुना है। यदि तार अत्यधिक कैसे होंगे तो टूट जाएंगे और यदि ढीले होंगे तो स्वर बिगड़ जाएंगे।
बुद्ध मुस्कुराए और बोले —जो सितार के तार का नियम है, वही जीवन का भी नियम है। मध्य में रहो, न अधिक भोग की अति करो, न तप की।

वेद में कहा गया है कि—जीवन का निर्माण और विनाश दोनों हमारे हाथों में है। निर्माण करने का बेहतर तरीका क्या हो इसे जो जानता है, उसका जीवन दूसरों के लिए प्रेरक बन जाता है। जीवन रूपी सितार से मधुर संगीत तभी बजता है, जब जीवन रुपी सितार के तार न कसें हों, न ढीले हों। क्षमता से अधिक श्रम ओर आलस्य में पड़े रहकर कुछ भी न करना, दोनों उचित नहीं है। हमें हमेशा शुभ कर्म करने चाहिए क्योंकि शुभ कर्म सुखदाता ओर पाप कर्म दुख प्रदाता होते हैं।

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