256. क्रोध

श्री गणेशाय नमः

श्री श्याम देवाय नमः

मानवीय संवेदनाएं कहीं सकारात्मक ऊर्जा और कहीं नकारात्मक ऊर्जा वहन करती हैं। क्रोध नकारात्मक ऊर्जा का भाव है। क्रोध इच्छाओं के अवरोध से उत्पन्न होता है। इच्छाएं बहुत सरल और स्वभाविक भी हो सकती हैं या फिर दुष्कर और अस्वभाविक। मानव स्वभाव स्वार्थ और अहंकार जैसे अवगुणों से निहित रहता है। अहम पर चोट या स्वार्थ की पूर्ति न होना एक विशेष अवस्था को जन्म देता है— जो क्रोध है।

क्रोध पूरे जीवन मनुष्य को घेर कर रखता है। ना उम्र की मर्यादा रखता है और ना ही ज्ञान की। कब, कहां, किस पर और किस समय उत्पन्न हो जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता। जैसे ही क्रोध का जन्म होता है, वैसे ही बुद्धि और विवेक का लोप हो जाता है। बुद्धि पर अहंकार छा जाता है, उचित और अनुचित का बोध नहीं रहता।

क्रोध वास्तव में इच्छाओं की पूर्ति न होने पर होने वाली प्रतिक्रिया है। अगर इस प्रतिक्रिया पर हमारा नियंत्रण है फिर तो क्रोध कोई खास दुष्परिणाम नहीं देता है। परंतु अगर यह अनियंत्रित है तो फिर भयंकर परिणाम भी सामने आते हैं। वास्तव में देखा जाए तो किसी भी काम को बार-बार करने से वह हमारी आदत बन जाती है। अगर हम क्रोध भी बार-बार करते रहे तो यह स्थाई रूप से हमारे स्वभाव का हिस्सा बन जाएगा। फिर यह हमारे जीवन के हर पहलू को प्रभावित कर हमें दुख की ओर धकेल देगा।

एक बार गुरु जी अपने शिष्यों को कुटिया के बाहर बिठाकर शिक्षा दे रहे थे। उन्होंने शिष्यों से कहा— वे जीवन से जुड़ा कोई भी प्रश्न उनसे निसंकोच पूछ सकते हैं।
एक शिष्य ने गुरुजी से पूछा— गुरुजी! जब कोई व्यक्ति दूसरे पर क्रोधित होता है, तब वह चिल्ला कर क्यों बोलता है? जबकि दूसरा व्यक्ति उसके नजदीक ही होता है। फिर चिल्लाकर बोलने की क्या आवश्यकता?
गुरुजी शिष्य की इस बात पर मुस्कुराए। फिर उन्होंने कहा— देखो, जब कोई व्यक्ति किसी पर क्रोधित होता है तो उसके हृदय और सामने वाले के हृदय के बीच की दूरी बढ़ जाती है। वह जितना नाराज होगा दूरी उतनी ही अधिक होगी। इसी दूरी के कारण लोग चिल्लाकर बोलते हैं। तुमने भी देखा होगा की जब दो लोग प्रेम में होते हैं, तब वे धीरे-धीरे बातें करते हैं क्योंकि उनके ह्रदय बहुत पास- पास होते हैं। जब एक- दूसरे को हद से ज्यादा चाहने लगते हैं तो उनके हृदय आपस में मिल जाते हैं, तब बोलने की भी आवश्यकता नहीं होती। दोनों सिर्फ एक- दूसरे को देख कर ही, एक- दूसरे की भावनाओं को समझ लेते हैं।

हालांकि कभी-कभी क्रोध आवश्यक भी हो जाता है। अपने साथ हो रहे बारंबार अत्याचार के विरूद्ध भी अगर हम विनीत और सरल हैं तो लोग हमें कमजोर समझने लगते हैं और हमारा मजाक बनाने लगते हैं। कभी-कभी तो लोग हमारा फायदा भी उठा लेते हैं। ऐसी परिस्थितियों में क्रोध को प्रकट करना आवश्यक हो जाता है।

क्रोध समाप्त होने पर व्यक्ति पश्चाताप करता है। परंतु परिस्थितियों को पूर्व की भांति नहीं कर पाता। रामायण में एक प्रसंग है— जब भरत जी भगवान श्री राम को मनाने के लिए वन में जा रहे हैं तो लक्ष्मण जी को मिथ्या भ्रम हो जाता है कि वह भगवान श्रीराम पर आक्रमण करने आ रहे हैं। वह देव पुरुष भरत जी के लिए लोभी और लालची जैसे अनेकों अनुचित शब्दों का प्रयोग करते हैं। पर जब लक्ष्मण जी को सच्चाई का पता चलता है तो उनके पास पश्चाताप के अलावा कुछ नहीं बचता। वे ग्लानि से भर जाते हैं क्योंकि क्रोधी स्वभाव होने के कारण उन्होंने ऐसा किया।

कई बार परिस्थितियां ऐसी होती हैं कि न चाहते हुए भी क्रोध करना पड़ता है। भगवान श्रीकृष्ण ने भी अपने ही बंधु शिशुपाल के प्रति क्रोध दिखाया था परंतु अथाह समुद्र जितना सहन करने के पश्चात् अर्थात् जब कोई अनावश्यक और अकारण ही हमें क्षति पहुंचाने का प्रयत्न करता है, तब उसका प्रतिकार किया जाना चाहिए परंतु निश्चित समय और दायरे में। सामने वाले के सामर्थ्य का आकलन और अपनी स्थिति पर विचार करने के बाद ही उचित कदम उठाना चाहिए।

ऐसा भी नहीं है कि क्रोध हमेशा बुरा ही होता है लेकिन फिर भी इस पर नियंत्रण होना चाहिए और उचित- अनुचित की समझ होनी चाहिए। जटायु ने उचित समय पर रावण के ऊपर क्रोध किया। इसलिए वह भगवान श्रीराम की गोद के अधिकारी बने। शास्त्रों में कहा गया है कि— क्रोध समस्त विपत्तियों का मूल कारण है। क्रोध धर्म का नाश करने वाला है। इसलिए क्रोध को त्याग देना चाहिए। परंतु संयमित एवं सकारात्मक क्रोध जरूरत पड़ने पर अवश्यंभावी है।

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