258. आध्यात्मिक उन्नति

श्री गणेशाय नमः

श्री श्याम देवाय नमः

यह दुर्लभ मानव जीवन संसार की अनमोल उपलब्धि है। आत्मिक विशेषताओं के कारण ही मनुष्य इस सृष्टि का मुकुट मणि है। यही कारण है कि मनुष्य का गौरव एवं उत्तरदायित्व भी महान है। आत्मा की शक्तियों का निरंतर संवर्धन एवं सदुपयोग करना ही मनुष्य की आध्यात्मिक उन्नति का मुख्य लक्ष्य है। परंतु तामसिक प्रवृत्तियों के कारण मनुष्य आत्मा की पुकार को अनदेखा करने लगता है। वह आत्मा की आवाज को सुनना ही नहीं चाहता। जिससे उसकी आध्यात्मिक उन्नति में बाधा उत्पन्न होती है और वह आत्मा को निकृष्ट कर्मों से अधोगति की ओर ले जाता है।

प्रत्येक मनुष्य यही इच्छा रखता है कि— उसकी उन्नति लोक के साथ-साथ परलोक में भी हो।

यहां लोक से आशय यह होता है कि— जीवन में जो कुछ दिखाई दे रहा है, वह लोक है। जैसे घर- परिवार, समाज, जिनके मध्य हम नित्य उठते- बैठते हैं, कार्य करते हैं आदि।
परलोक का आशय मृत्यु के बाद का कोई ऐसा संसार जहां, यहां से भिन्न जीवन है।
जिसे हम स्वर्ग और नर्क भी कहते हैं।
बहुत से मनुष्य पूजा-पाठ, दान दक्षिणा आदि करते रहते हैं ताकि उनका परलोक भी अच्छा रहे। मृत्यु के पश्चात् जब वे उस अदृश्य दुनिया में जाएं तो उनका स्वागत देवलोक में निवास करने वाले यानी देवता करें और उन्हें उत्तमोत्तम स्थान प्राप्त हो। जब हम आध्यात्मिक उन्नति की बात करते हैं तो हम चाहते हैं कि लोक के साथ-साथ परलोक भी मंगलमय हो।

सभी धर्म ग्रंथ यही कहते हैं कि— आत्मा अजर- अमर है। किसी भी भौतिक तत्व का इस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। मनुष्य जन्म से लेकर मृत्यु तक अपना अस्तित्व बनाए रखता है। हमारी आत्मा जो पराशक्ति है, जिसे देखा नहीं सिर्फ महसूस किया जाता है, वही परलोक का देवता है। यह पराशक्ति शरीर में ऊर्जा है। इसे शरीर का आभामंडल भी कहते हैं। यह मन से भी गहरा शरीर का वह अंश है, जिसके निकल जाने पर शरीर, शव में तब्दील हो जाता है। परंतु जब मनुष्य स्वार्थ के वशीभूत हो जाता है, तब वह अपने क्षणिक सुख के लिए अपनी अंतरात्मा की आवाज को नहीं सुनता। वह पापमय आचरण में इतना लिप्त हो जाता है कि उसे शुभ एवं अशुभ का ध्यान ही नहीं रहता।

जब भी कोई व्यक्ति नेक कार्य करता है तो उससे उसे प्रसन्नता मिलती है और आत्मा को सुकून मिलता है। इसके विपरीत गलत कार्य करने पर मन डरता है और आत्मा मरती है। जिसके कारण जब वह एकांत में बैठता है तो उसे अपना परलोक उथल-पुथल होता दिखाई देने लगता है।
मनुष्य जब तामसिक प्रवृत्तियों से ग्रस्त हो जाता है, तब वह ईश्वर प्रदत शक्तियों का दुरुपयोग करता है। उसके अंत:करण पर जब पाशविक संस्कार प्रभावशाली हो जाते हैं, तब वह अपनी आत्मा की प्रेरणा को भी नहीं सुन पाता। ऐसी अवस्था मनुष्य के भौतिक एवं आध्यात्मिक जीवन को नष्ट-भ्रष्ट कर देती है। जो व्यक्ति अपनी आत्मा की पुकार को नहीं सुनता, प्रकाशहीन घोर अंधकार से युक्त नीच लोकों को प्राप्त करता है। प्रकृति के भोग विषयों की दलदल में धंसकर मनुष्य विवेकहीन हो जाता है। ऐसा व्यक्ति जीवन में सदा ही अशांत एवं पथभ्रष्ट रहता है। उसे आत्मग्लानि होने लगती है। खुद की आत्मा धिक्कारने लगती है। जो ईश्वर के द्वारा दी गई आत्मिक शक्तियों की धरोहर का आत्मसंतुष्टि एवं क्षणिक भौतिक सुख के लिए दुरुपयोग करता है, वह इस धरा का सबसे दुर्भाग्यशाली मनुष्य है।

समस्त संसार सुखी और समृद्ध हो यह कामना रखते हुए अध्यात्म के पथ पर चलना चाहिए। यदि कोई व्यक्ति स्वयं दुखी और दरिद्र है तो उसकी संपूर्ण जगत की सुखी और समृद्ध होने की कामना अर्थहीन है। जिस प्रकार बूंद-बूंद से घड़ा भरता है, उसी प्रकार एक- एक व्यक्ति की सफलता से सुखी और समृद्ध संसार बनता है। अपने दुख और दरिद्रता से त्रस्त कुछ लोग दूसरों के सुख और समृद्धि के मार्ग में अवरोध उत्पन्न करते हैं। अक्सर देखा जाता है कि कई प्रतिभाएं इसलिए दब जाती हैं क्योंकि कुछ लोग उनकी प्रगति के मार्ग अवरुद्ध कर देते हैं। ऐसा करने वालों को अपने जीवन काल में ही भारी दुखों का सामना करना पड़ता है।

फिर वे कितनी भी प्रार्थना करें, ईश्वर उनकी नहीं सुनता। शारीरिक रोग, मानसिक विक्षिप्तता, अकाल मृत्यु आदि जैसे दुख ऐसे ही कुकृत्यों के परिणाम हैं। ऐसे लोगों का पूजा- पाठ, कर्मकांड सब धरा का धरा रह जाता है। कोई दैवीय शक्ति उन पर दया नहीं करती। ऐसे लोग चाहे लोकप्रिय हों जाएं लेकिन उनका अपना जीवन उन्हें ऐसे अंत की ओर ले जाता है, जहां पल में सैकड़ों साल का दुख और पीड़ा सिर पर आ पड़ती है। इसलिए जब तक जिएं श्रम और बुद्धिमत्ता का आश्रय लेकर अपनी भौतिक और आध्यात्मिक उन्नति का प्रयत्न करें। कहा गया है कि— इंसान के दोनों कंधों पर सवार दो दूत प्रत्येक कर्म का लेखा-जोखा रखते हैं। उनकी निगाहों से किसी का कोई कुकृत्य नहीं छिपता। इसलिए जो व्यवहार आप पसंद नहीं करते, दूसरों के साथ कदापि न करें।

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