264. हृदय

श्री गणेशाय नमः

श्री श्याम देवाय नमः

हृदय मनुष्य शरीर का एक महत्वपूर्ण ऑर्गन है। जब तक हृदय अपना काम सुचारू रूप से करता है, तभी तक मानव जीवन है यानी मनुष्य के जीवन में धड़कन है, तभी वह जिंदा है। हमारे हृदय की धड़कन उस समय प्रारंभ होती है, जब उससे जुड़ी विशेष कोशिकाएं गर्भ में बनती और बढ़ती हैं। कोशिकाएं पुरे हृदय के आकार लेने से पहले ही धड़कने लगती हैं और वे एक साथ धड़कती है। हृदय मनुष्य के जन्म लेने से पहले ही अपने कार्य में सक्रिय हो जाता है और हमारी मृत्यु पर ही बंद होता है। अगर हम यह कहें कि हृदय की धड़कन बंद हो जाने पर ही हमें मृत घोषित किया जाता है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।

अक्सर आपने, अपने बड़े-बुजुर्गों से कहते हुए सुना होगा कि अपने दिल और दिमाग के सामंजस्य से कोई भी कार्य सफलतापूर्वक पूरा कर सकते हैं। क्योंकि जब हमारे दिल और दिमाग में साम्य बैठता है, तब सर्वोत्तम स्थिति बनती है। अक्सर आपने महसूस किया होगा कि जब हमें किसी कार्य को लेकर कोई समस्या आ जाती है तो हम दिल और दिमाग में साम्य बैठा कर उस समस्या से निकलने का रास्ता ढूंढते हैं। अगर हमारा दिल और दिमाग दोनों एक तरफ फोकस करते हैं तो हमें अपनी समस्या का समाधान मिल जाता है।

विज्ञान बताता है कि हमारे दिल में भी एक बुद्धिमत्ता होती है। कई बार जीवन में ऐसे अवसर भी आते हैं कि— किसी समस्या का समाधान हमें बिल्कुल नहीं सूझता। फिर हम अपने दिमाग को तरोताजा करने के लिए बाहर टहलने निकल जाते हैं या कोई अपना पसंदीदा गेम, टीवी प्रोग्राम आदि पर अपना फोकस बनाकर अपना तनाव कम करने की कोशिश करते हैं। जब हमारा दिमाग शांत हो जाता है तो हमें समस्या का समाधान मिल जाता है। यह समाधान दिमागी नहीं बल्कि ह्रदय की शक्ति से उपजा होता है।

अक्सर हम अपने आसपास ऐसे लोगों को देखते हैं जो बहुत ही आलसी होते हैं। वे हमेशा बुझे- बुझे रहते हैं। वे बहुत निष्क्रिय रहते हैं। उनके चेहरे पर हमेशा उदासी छाई रहती है। वास्तव में ऐसे लोगों का दिमाग सुप्तावस्था में चला जाता है। क्योंकि ये लोग अपने दिल के संपर्क से कट जाते हैं। ऐसे में मनुष्य सही और गलत का निर्णय नहीं कर पाता। वह अपने आप को असहज महसूस करता है। ऐसी स्थिति में बहुत सारे मनुष्य तो मनोरोग के शिकार हो जाते हैं और उनकी यह प्रवृत्ति अपराधी बना देती है। अक्सर देखने को मिलता है कि ज्यादातर अपराधी, मनोरोग के शिकार पाए जाते हैं। ऐसे लोग अपने हृदय के कपाट बंद कर लेते हैं। इसलिए उनकी भावनाएं उन्हें सही-गलत की पहचान नहीं करा पाती।

तनाव या समस्या के समय जब दिमाग के दरवाजे अक्सर बंद नजर आते हैं, तब हमारा हृदय दौगुनी ताकत से व्यक्ति को तनाव मुक्त करने में लग जाता है। बस हमें हृदय के उस संकेत को समझने की आवश्यकता है। जो उस संकेत और पहचान को समझ जाते हैं, वे अपने हृदय की शक्ति से पूरी दुनिया को जीत लेते हैं और जो उसे नहीं समझ पाते, वे अपनी परेशानियों और समस्याओं में उलझे रह जाते हैं और हमेशा तनाव से ग्रस्त रहते हैं।

हृदय और अध्यात्म—
हमारे सनातन धर्म में हृदय में परमात्मा का वास माना गया है। हमारे ऋषि मुनि हमेशा से यही कहते आए हैं कि— कोई भी कार्य हृदय की गहराई में उतरकर करोगे तो हमेशा सफलता के चरम सुख को प्राप्त करोगे। उनके कहने का आशय यही था कि हृदय में परमात्मा का वास होने के कारण, जब हम दिल से काम करेंगे तो हमें सफलता ही प्राप्त होगी।

एक कहानी प्रचलित है कि —
एक बार भगवान दुविधा में पड़ गए। कोई भी मनुष्य जब मुसीबत में पड़ता तो भगवान के पास भागा- भागा आता और उन्हें अपनी परेशानियां बताता, उनसे कुछ न कुछ मांगने लगता। अंततः उन्होंने उस समस्या के निवारण के लिए देवताओं की बैठक बुलाई और बोले—
मैं मनुष्यों की रचना करके कष्ट में पड़ गया हूं। कोई ना कोई मनुष्य हर समय शिकायत ही करता रहता है, जबकि मैं उन्हें उनके कर्मानुसार सब कुछ दे रहा हूं, फिर भी थोड़े से कष्ट में ही मेरे पास आ जाता है, जिसके कारण मैं न तो कहीं शांतिपूर्वक रह सकता हूं और न ही तपस्या कर सकता हूं। आप लोग मुझे कृपया ऐसा स्थान बताएं, जहां मनुष्य नाम का प्राणी कदापि न पहुंच सके।

प्रभु के विचारों का आदर करते हुए देवताओं ने अपने- अपने विचार प्रकट किए।
गणेश जी बोले- आप हिमालय पर्वत की चोटी पर चले जाएं।
भगवान ने कहा— यह स्थान तो मनुष्य की पहुंच में है। उसे वहां पहुंचने में अधिक समय नहीं लगेगा।

इंद्रदेव ने सलाह दी कि—वे किसी महासागर में चले जाएं।
वरुण देव बोले—आप अंतरिक्ष में चले जाइए।
भगवान ने कहा -एक दिन मनुष्य वहां भी अवश्य पहुंच जाएगा। भगवान निराश होने लगे थे। वे मन ही मन सोचने लगे- क्या मेरे लिए कोई भी ऐसा गुप्त स्थान नहीं है, जहां मैं शांतिपूर्वक रह सकूं।

अंत में सूर्य देव बोले—
प्रभू! आप ऐसा करें कि मनुष्य के हृदय में बैठ जाएं। मनुष्य अनेकों स्थानों पर आपको ढूंढने में सदैव उलझा रहेगा पर वह अपने हृदय में आपको कदापि तलाश न करेगा।
ईश्वर को सूर्य देव की बात पसंद आ गई। उन्होंने ऐसा ही किया और वे मनुष्य के हृदय में जाकर बैठ गए।
उस दिन से मनुष्य अपना दुख व्यक्त करने के लिए ईश्वर को मंदिर, मस्जिद, ऊपर- नीचे आकाश-पाताल में ढूंढ रहा है, पर वह मिल नहीं रहा, परंतु मनुष्य कभी भी अपने भीतर “हृदय रूपी मंदिर” में बैठे ईश्वर को नहीं देख पाता।
यह तो आत्मसाक्षात्कार मिलने के पश्चात् ही संभव है।
तभी तो हमारे मनीषि कहते रहते हैं, अपने हृदय के दरवाजे खुले रखने चाहिए। यदि मनुष्य अपने हृदय की आवाज सुनने लगे तो आसमान छू सकता है। जिसके हृदय में भगवान विद्यमान है उसके लिए कलयुग भी सतयुग ही है।

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