268. मानव और चिंता

श्री गणेशाय नमः

श्री श्याम देवाय नमः

मानव का चिंताओं के साथ बहुत ही पुराना और गहरा नाता है। यह कहने में अतिश्योक्ति न होगी कि मानव जन्म के साथ ही चिंताएं भी पनपने लगती हैं। लेकिन कुछ चिंताओं से जीवन की दिशा अवरूद्ध हो जाती है तो कुछ चिंताएं आश्चर्यजनक रूप से उत्प्रेरक का कार्य करती हैं। उम्र और समय के अनुसार मानव की चिंताएं भी बदलती रहती हैं। समय के अनुसार मानव का नजरिया और दिलचस्पी भी बदलती रहती है। इन बदलाव के बीच कई बार मानव अपने कार्य के बारे में उचित निर्णय नहीं ले पाते, जिससे वे तनाव का शिकार हो जाते हैं।

अवसाद से ग्रस्त मानव चिंता के अलावा और कुछ करने के योग्य ही नहीं होता। मानव ज्यादातर अपने कैरियर को लेकर ज्यादा चिंताग्रस्त रहता है। इंजीनियरिंग और मेडिकल से प्रभावित होकर कई बार युवा बिना दिलचस्पी के उस दौड़ में शामिल हो जाते हैं। कई बार पढ़ाई के बीच में और कई बार नौकरी करते हुए उन्हें महसूस होने लगता है कि यह काम उनके लिए नहीं बना है। वे अच्छे साहित्यकार बन सकते थे, अच्छे कलाकार हो सकते थे लेकिन जब यह बात समझ में आती है, तब तक समय आगे बढ़ चुका होता है। वे कैरियर की दिशा में आगे बढ़ चुके होते हैं और एक बार फिर नए सिरे से शुरुआत करने से डरने लगते हैं। इस मोड़ पर नए कैरियर की शुरुआत निश्चित तौर पर जोखिम भरा फैसला होगा। लेकिन इससे भी ज्यादा जोखिम होगा अनिच्छा के साथ खुद को किसी पेशे के लिए उपयुक्त साबित करना। इसलिए जरूरी है कि मानव अपनी चिंताओं को लगाम दें।

चिंता किए बगैर अपने कौशल को पहचाने और जब भी उसकी सही परख हो जाए, साहसिक फैसले लें। चिंताओं से ग्रस्त होकर अपने कैरियर से समझौता न करें बल्कि अपने जीवन में लिए गए महत्वपूर्ण फैसलों में निरन्तर सुधार करें। जब आप कोई निर्णय लेते हैं तो उस पर निरंतर सक्रिय रहने के साथ-साथ, समय-समय पर आवश्यक सुधार करते रहना बहुत जरूरी होता है। ऐसा करने के लिए संकल्प और फोकस की आवश्यकता होती है और ये तभी हो सकता है जब मानव का अपनी चिंताओं पर नियंत्रण हो, वरना संकल्प कमजोर पड़ सकता है। अगर उसे निरंतर सही दिशा में चलते हुए, सुधार के साथ सक्रिय न रखा जाए। इसलिए खुद के कार्यों पर समय-समय पर समीक्षा करते रहेंगें तो निश्चित ही लक्ष्य को हासिल कर पाएंगे। चिंताएं जीवन के साथ चलती हैं और ये जीवन के साथ ही सख्त खत्म होती हैं। कदाचित यही कारण है कि चिंतारहित जीवन की संभावना महज कोरी कल्पना है। किंतु चिंताओं पर चिंतन और आत्मविश्लेषण यहीं खत्म नहीं हो जाता।

प्रसिद्ध अमेरिकी दार्शनिक विलियम जेम्स का मानना था कि —यदि आप यह सोचते हैं कि आपके चिंता करने से जीवन में गुजरे कल और आने वाले कल की घटनाएं बदल जाएंगी तो आप पृथ्वी से इतर किसी अन्य ग्रह पर फंतासी की दुनिया में रह रहे होते हैं। चिंता मानव को मिट्टी में मिला देती है।

हमारे मनीषियों ने कहा है कि— चिंता और चिता में एक बिंदी का अंतर है। चिता मनुष्य को अंतिम समय के पश्चात अर्थात “मृत्यु के पश्चात” प्राप्त होती है, लेकिन चिंता हर पल मनुष्य को मृत्यु के नजदीक पहुंचाती रहती है।

प्रसिद्ध ब्रिटिश राजनीतिज्ञ और लेखक विंस्टन चर्चिल ने एक बार कहा था कि— जब भी कभी मैं अपने जीवन की चिंताओं के बारे में पीछे लौटकर देखता हूं तो सहसा मुझे उस बूढ़े व्यक्ति की कहानी याद आ जाती है जिसने अपनी मृत्यु शैय्या पर कहा था कि वह ताउम्र बेशुमार चिंताओं और भय से परेशान रहा लेकिन उनमें से अधिकांश चिंताएं कभी भी घटित नहीं हुई। आशय यह है कि हम चिंताओं से तो मुंह नहीं मोड़ सकते, लेकिन उनके बोझ तले खुद के जीवन को अव्यवस्थित होने से बचा ही सकते हैं। उन निरर्थक चिंताओं से मनुष्य को कौन सा लाभ प्राप्त होता है।

क्यों नहीं हम अपने जीवन को चिंताओं से दूर रखकर प्रकृति के उल्लास में शामिल हों। पतझड़ में किसी पेड़ से टूटे पत्ते को गौर से देखिए, वह पत्ता पेड़ की डाल से अलग होते हुए भी मधुर ध्वनि के साथ नये आने वाले फूलों और पत्तों का स्वागत करता है। उसे अपने गिरने की चिंता नहीं होती बल्कि आने वाली बसंत ऋतु का स्वागत करता है। हमारी आधुनिक जीवनशैली की कितनी बड़ी विडंबना है कि जब प्रकृति अपने सृजन का उत्सव मना रही होती है, तो हम चिंता से ग्रस्त हुए बोझिल मन से अपने घरों, दफ्तरों में सिकुड़े होते हैं।

हम अपने कार्यों में इतने चिंतित रहते हैं कि— हमारे पास प्रकृति में आए खुशनुमा, सुखद और खूबसूरत बदलाव को देखने का वक्त ही नहीं होता। मशीनी क्रियाओं के साथ हमारे मन का उल्लास भी सुख-सा गया है। हम खुद को कुदरत से दूर इसी कृत्रिम दिनचर्या में रमा चुके हैं। लेकिन जिंदगी का असली आनंद तो तब आता है, जब हम चिंताओं को छोड़कर प्रकृति के उल्लास में खुद को जोड़ें। उसके उत्सव में शामिल हों। मौसम के बदलाव को जिस तरह प्रकृति ने धारण किया है, उसी तरह अपने भीतर कुछ सुखद बदलाव महसूस करें।

बसंत की पराकाष्ठा देखनी हो तो जोगिया हुए ‘अमलतास’ के वनों को देखिए, महसूस कीजिए और कुछ समय के लिए अपनी चिंताओं को भूलकर वसंत के उल्लास में खो जाइए, तब आपको एहसास होगा कि बसंत बाहर ही नहीं, आपके भीतर भी दस्तक दे चुका है। वसंत महज एक ऋतु नहीं बल्कि जीवन का सार्थक संदेश भी है। जिस तरह सर्दी की कठोरता को झेलने के बाद भी प्रकृति स्वंय के नवनिर्माण का माद्दा रखती है, ठीक उसी तरह हम मनुष्यों को भी जीवन के उतार-चढ़ाव को बिसार कर खुद को सृजन के लिए तैयार रखना चाहिए।

वसंत दुख- संताप, चिंताओं को भुलाने का संदेश लेकर आता है। अतीत में घटित सारी दुश्वारियों के निशान मिटा देता है। हमारे जीवन में भी वसंत का उत्सव कायम रहे, इसके लिए जरूरी है कि हम बीती बिसारें और आने वाले कल का पूरे जोश के साथ उत्सव मनाएं। जीवन की छोटी-छोटी खुशियों, तरक्की और रिश्तों को अपनी अमूल्य निधि मानकर चिंता को अपने पास फटकने न दें।

जीवन को वसंतमय बनाएं। जिस प्रकार टूटे हुए पत्तों का अपना कोई वजूद नहीं होता, तेज हवाएं इन्हें अपनी दिशा में उड़ा ले जाती हैं, उसी प्रकार मानव जीवन भी इन टूटे पत्तों सरीखा ही होता है। जिसे वक्त और प्रारब्ध की तेज आंधी बहा ले जाती है। हम यहां पर बेबस और लाचार महसूस करते हैं। यही मानव जीवन की सबसे बड़ी हार है। फिर हम इन चिंताओं को खुद के जीवन में शामिल क्यों करते हैं? क्यों हम इन चिंताओं को अपने जीवन पर हावी होने देते हैं?

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