273. क्रोध

श्री गणेशाय नमः

श्री श्याम देवाय नमः

“कामात् जायते क्रोध:” जब अपने मनोवांछित कार्य पूर्ति की इच्छाओं में किसी भी प्रकार की बाधा उत्पन्न होती है, तो उस समय क्रोध उत्पन्न होता है।
जिसके मूल में लोभ होता है। कामादि विकारों को तो छिपाया जा सकता है, परंतु क्रोध को छिपाना सम्भव नहीं है।

क्रोधाविष्ट व्यक्ति अंधा और बहरा बन जाता है। क्रोध मानव के लिए हानिकारक है। मानव जीवन में तमाम अवगुणों की चर्चा होती है, जिनमें क्रोध एक बड़ा दुर्गुण है। क्रोध में मनुष्य का विवेक, बुद्धि कुंठित हो जाते हैं। वाणी पर संयम नहीं रहता, आंखों में लालिमा छा जाती है। कई बार मनुष्य इतने भयंकर क्रोध से भर जाता है कि वह दूसरे व्यक्ति की हत्या, आत्महत्या और अनेक जघन्य कर्मों का कारण बनता है।

यदि किसी कारण क्रोध तत्काल प्रकट न हो सके तो वह ईर्ष्या और बदले की भावना में परिणत होकर और भी भयंकर रूप में प्रकट होता है। क्रोध एक दुधारी तलवार है जो अपना और दूसरों का एक साथ नुकसान करती है। क्रोध की अवस्था में शरीर से अनेक विषैले रसायन स्रावित होते हैं। ऐसे समय में मां अपने छोटे बच्चे को स्तनपान करवाती है, तो उसके स्वास्थ्य पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है।

अक्सर कहा जाता है कि क्रोध की स्थिति में कोई भी कार्य नहीं करना चाहिए, न ही कोई बड़ा निर्णय लेना चाहिए। क्योंकि वह निश्चित रूप से गलत ही होगा। हमारे ग्रंथ भी क्रोध के अतिरेक से बचने की सलाह देते हैं। वास्तव में क्रोध मनुष्य के मन को कलुषित कर देता है।

एक बार की बात है— एक महात्मा भिक्षा मांगते हुए एक घर के सामने खड़े हुए और उन्होंने आवाज लगाई, “भिक्षां देही”।
घर के अन्दर से एक महिला बाहर आई, उसने उनकी झोली में भिक्षा डाली और कहा— महात्मा जी! कोई उपदेश भी देते हो या महात्मा होने का आडम्बर करते हो।
महात्मा जी बोले —आज नहीं कल दूंगा।
यह सुनकर वह महिला बिफर गई और महात्मा जी को अनाप-सनाप कहने लगी।
ऐसी अपमानजनक बातों को सुनकर वह महात्मा अपने गुरु जी के पास गया और उसने सारा वृत्तांत कह सुनाया। क्योंकि महात्मा जी पर भी क्रोध हावी होने लगा था।
उसके इस व्यवहार को गुरुजी भांप गये थे। उसने अपने शिष्य को समझाया कि तुम कल भी उसी घर से भिक्षा लेकर आना और तब तक लेकर आते रहना, जब तक वह महिला तुम्हें खुद बुलाकर भिक्षा के लिए आग्रह न करे। यही तुम्हारी परीक्षा होगी।

न चाहते हुए भी वह महात्मा उस घर से भिक्षा लेने के लिए जाने लगा। वह महिला कभी तो क्रोध के आवेश में भिक्षा डाल देती और कभी उसे खाली हाथ ही लौटना पड़ता। कुछ दिनों के बाद महिला का क्रोध शांत हो गया और सोचने पर विवश हो गई, कि मैं इस महात्मा का इतना अपमान करती हूं, कभी तो भिक्षा भी नहीं डालती, फिर भी यह महात्मा प्रतिदिन मेरे द्वार पर आ जाता है, इसका कोई न कोई कारण तो होगा। वह यह सोचते- सोचते सो गई।

अगले दिन सुबह वह महात्मा जी का इंतजार करने लगी। इस सारी घटना पर गुरुजी दृष्टि लगाए हुए थे। उन्हें प्रत्येक दिन की खबर पता थी। गुरु जी समझ गए थे कि— अब महिला का हृदय परिवर्तन हो रहा है। अब वह क्रोध रूपी राक्षस से बाहर निकल रही है। इसलिए उसने अपने शिष्य से कहा कि कुछ दिनों के लिए तुम उस महिला के घर भिक्षा मांगने मत जाना।

शिष्य को बड़ी हैरानी हुई, लेकिन वह गुरुजी के सामने कुछ बोल नहीं सका। इधर महिला भी बड़ी बेचैन थी, क्योंकि कई दिनों से वह महात्मा भिक्षा के लिए नहीं आया था। उसे अपने व्यवहार पर पछतावा हो रहा था। वह उस महात्मा को मिलने के लिए आतुर थी। क्योंकि अपने व्यवहार से वह बहुत शर्मिंदा थी और महात्मा के चरण पकड़ कर माफी मांगना चाहती थी।

कई दिनों के बाद गुरु जी ने अपने शिष्य को बुलाया और कहा— अब तुम उस महिला के घर भिक्षा लेने के लिए जा सकते हो और उसे उपदेश भी दे सकते हो।
अब शिष्य भी गुरुजी की बात समझ गया था और उसके मन में जो थोड़े- बहुत द्वेष के भाव थे वे भी खत्म हो चुके थे। सुबह उठकर महात्मा जी ने उसी घर के सामने जाकर आवाज लगाई— भिक्षाम् देही, वह महिला दौड़ती हुई बाहर आई और महात्मा जी का कुशलक्षेम पूछा। उस दिन उसने खीर बनाई थी, जिसमें बादाम- पिस्ते भी डाले हुए थे। वह खीर का कटोरा लेकर आगे बढ़ी, तो महात्मा जी ने अपना कमंडल आगे कर दिया।

वह महिला जब खीर डालने लगी, तो उसने देखा कि कमंडल में गोबर और कूड़ा भरा पड़ा है। उसके हाथ ठिठक गये।
वह बोली—महाराज! यह कमंडल तो गंदा है। महात्मा जी बोले— हां, गंदा तो है, किंतु खीर इसी में डाल दो।
वह महिला बोली— नहीं महाराज! तब तो खीर खराब हो जाएगी। यह कमंडल दीजिए, मैं इसे शुद्ध करके लाती है।
महात्मा जी बोले— इसका मतलब जब यह कमंडल साफ हो जाएगा, तभी खीर डालोगी न?
महिला ने कहा— जी महाराज!
तब महात्मा जी ने कहा— मेरा भी यही उपदेश है। मन में जब तक क्रोधग्नि प्रज्वलित है, तब तक उपदेशामृत का कोई लाभ नहीं होगा। यदि उपदेशमृत पान करना है, तो प्रथम अपने मन को शुद्ध करना चाहिए। इसलिए किसी भी व्यक्ति के स्वभाव में यदि क्रोध हावी हो जाए तो वह अलोकप्रिय हो जाता है। उसके सोचने -समझने की शक्ति क्षीण हो जाती है। इससे मन अशांत रहने लगता है।

अशांत मन से व्यक्ति कभी उन्नति नहीं कर सकता। कई बार आपने देखा होगा या अनुभव किया होगा कि— विनम्र या धैर्यशाली व्यक्ति कम योग्यता के बावजूद भी सफलता के शिखर चूमता है। वह समाज में सर्वोपरि स्थान रखता हुआ लोकप्रियता के कीर्तिमान स्थापित करता है। दूसरी तरफ क्रोधी स्वभाव का व्यक्ति अधिक योग्यता होने के बावजूद भी सफल नहीं हो पाता। जब यह क्रोध बढ़कर विकृत भाव को प्राप्त होता है, तब इसके कारण नाना प्रकार के रोगों की उत्पत्ति होती है।

क्रोध का आवेग ज्ञान के ऊपर पर्दा डालकर मन, बुद्धि को भी आच्छादित कर देता है। युवावस्था के प्रारंभ में बढ़ा हुआ क्रोध अनैतिक कार्यों में प्रवृत्त करता है। जिससे उसका पूरा जीवन खराब हो जाता है। जैसे अग्नि में घृत डालने पर वह और भी अधिक प्रज्वलित होती है, वैसे ही युवावस्था में छोटी- सी बात भी क्रोध को और ज्यादा प्रज्वलित कर देती है। ऐसे में क्रोध के वशीभूत होकर मूर्खतापूर्ण व्यवहार करने लगता है। ऐसा करने से उसकी स्मृति में भ्रांतियां पैदा होने लगती हैं। अंततः उसकी बुद्धि का नाश हो जाता है। जिस व्यक्ति की बुद्धि नष्ट हो गई हो, वह स्वयं एवं दूसरे का अहित करने में पीछे नहीं हटता। वह स्वत: अपने विनाश के लिए मार्ग तैयार करता है।

गौतम बुद्ध ने कहा है—”क्रोध को पाले रखना गर्म कोयले को किसी और पर फेंकने की नियत से पकड़े रखने के समान है। इससे आप ही जलते हैं”। इससे स्पष्ट हो जाता है कि— क्रोध के वशीभूत हुआ व्यक्ति जितना सामने वाले का अहित नहीं करता, उससे कई गुना स्वयं का अहित कर लेता है। क्रोध का जन्म इंद्रियों के वश में न होने से ही होता है। हमें स्वयं पर नियंत्रण रखने की क्षमता का विकास करना चाहिए। क्रोध जब हावी होने लगे तो हमें स्वयं को एकांत प्रदान करना चाहिए। एकांत हमारे क्रोध को अपने वश में रखने की सामर्थ्य रखता है। जिस कारण से क्रोध उत्पन्न हो रहा हो उससे दूरी बनाकर रखें। जब क्रोध आने लगे तो स्वयं को संयमित करने का प्रयास करना चाहिए।

भगवत गीता ने कहा है—
” क्रोधाद् भवति संमोह:”

क्रोधाविष्ठ व्यक्ति किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है। इसके मूल में अज्ञान रहता है। न्यायदर्शन में मोह को सब पापों की जड़ कहा है। उस अवस्था में ममता अर्थात् मेरेपन का भाव बढ़ जाने से बुद्धि उचित- अनुचित का निर्णय करने में असमर्थ हो जाती है। क्रोध से सम्मोह उत्पन्न होता है। सम्मोह से स्मरणशक्ति का भ्रशं और स्मरणशक्ति के भ्रशं से बुद्धि का नाश हो जाने के कारण व्यक्ति सर्वनाश के गर्त में धंसता चला जाता है।

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