श्री गणेशाय नमः
श्री श्याम देवाय नमः
मनुष्य के अंतःकरण में और बाहरी व्यवहार में जब विचारों का सामंजस्य स्थापित होने में अवरोध उत्पन्न होता है, तो यह दोहरे व्यक्तित्व की स्थिति होती है। मनुष्य समाज में अपने आप को दूसरों से सर्वश्रेष्ठ दिखाने के लिए दोहरे व्यक्तित्व का सहारा लेता है।
जिंदगी की रेस में पहले पायदान पर खड़ा होने के लिए वह अनेक नैतिक और अनैतिक कार्य करता है। समकालीन दौर में भौतिकता का प्रभाव उत्तरोत्तर बढ़ा है, लेकिन जीवन में कुछ दबाव तो आदिकाल से ही रहते आए हैं और आगे भी बने रहेंगे। इन दबावों को रचनात्मक रूप से झेलने की प्रवृत्ति के कारण मानव का पृथ्वी पर अस्तित्व बना हुआ है। कुछ दबाव तो जीवन को मधुर और सार्थक बनाते हैं, जिनके कारण परिश्रम करने का अभ्यास बना रहता है। जीवन के दैनिक कार्यों में दबाव और तनाव को सर्वथा समाप्त नहीं किया जा सकता, वरना जीवन नीरस बन जाएगा और उसकी जीवन्तता एवं रचनात्मकता जाती रहेगी।
दोहरे व्यक्तित्व की समस्या में इंद्रिय सुख समस्या का मूल कारण है। इसके वशीभूत प्रत्येक मनुष्य इंद्रिय सुख के सभी साधनों को उचित या अनुचित तरीके से एकत्रित करना चाहता है। इस आपाधापी में कभी-कभी वह संस्कारों के विरुद्ध आचरण कर देता है, जिसे उसके अंतःकरण में विद्यमान मन स्वीकार नहीं करता। हमारे मन में कई प्रकार की प्रेरणाएं, आवश्यकताएं, प्रयोजन, लक्ष्य और अभिप्रेरणाएं पाई जाती हैं। जब वे समुचित रूप से तृप्त नहीं हो पाती, तब मन में एक प्रकार का खिंचाव, कुंठा और संघर्ष उत्पन्न होता है।
ये कुण्ठाएं और बाधाएं सामाजिक परिस्थितियों से उत्पन्न होती हैं अथवा दूसरे लोगों के द्वारा खड़ी की जाती हैं। ये बाधाएं हमारे सामाजीकरण में महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं। इन्हीं के कारण हमारे अंदर अहम् का भाव उत्पन्न होता है। अहम् के वशीभूत होकर हमारे मन में भौतिक वस्तुओं को प्राप्त करने की लालसा और तीव्र हो जाती है। इसलिए हम हर प्रकार से धन- संग्रह करने के नए-नए तरीके ढूंढते हैं।
अधिक धन की प्राप्ति के लिए दूसरों का शोषण, अन्याय, असत्य व्यवहार, चोरी आदि अनैतिक कार्यों का सहारा लेना ही पड़ता है। इतना सब कुछ करने के बावजूद भी यह जरूरी नहीं कि व्यक्ति की सभी इच्छाएं पूरी हो जाएं। इसलिए जब कोई व्यक्ति सफलता के मार्ग में आने वाली बाधा को दूर करने में हार जाता है या किसी विरोध के प्रबल आघात से पीड़ित हो जाता है, तो स्वाभाविक है कि मन में निराशा या क्रिया शून्यता छा जाती है जो कि आगे भी असफलता का हेतु बनती है और असफलता तथा निराशा का यह कुचक्र चलता रहता है।
इसी कारण व्यक्ति के अंतःकरण में द्वंद्व की स्थिति उत्पन्न हो जाती है और वह अपराध बोध से ग्रस्त होकर मानसिक अवसाद की स्थिति में पहुंच जाता है, जिसके कारण कभी-कभी व्यक्ति आत्महत्या जैसा महापाप भी कर बैठता है। आजकल ऐसा अक्सर देखने में भी आता है। इसलिए इस समस्या से निपटने के लिए इंद्रियों को विषयों से हटाकर चित्त के अनुकूल करना बेहद आवश्यक है, जैसे तीसरे प्रहर में सूर्य अपनी प्रभा को सिमेटने लगता है, वैसे ही हमें इंद्रियों के स्वामी मन पर नियंत्रण करना चाहिए। कछुए के समान अपनी इन्द्रियों को संकुचित कर उन्हें आत्मोन्मुख करने का प्रयत्न करना चाहिए।
जिस प्रकार गोपालक वन में विचरण करती हुई गायों को लेकर सायंकाल वापिस गांव की ओर लौटता है, उसी भांति विषय रूपी वनों में संलिप्त इंद्रियों को वहां से हटाकर उन्हें नियंत्रण में रखना चाहिए। जैसे मधुमक्खियां रानी मक्खी के बैठने पर बैठती हैं और उसके उड़ने पर उड़ने लगती हैं। वैसे ही इन्द्रियां चित्त के अधीन होकर कार्य करती हैं। चित जब यम- नियम, आसन, प्राणायाम के अभ्यास से बाहर के विषयों से विरक्त होकर समाहित होने लगता है, तब उसका अनुकरण करती हुई इंद्रियां भी अपने व्यापार को रोक देती हैं।
चित्त की एकाग्रता के कारण इंद्रियों को अपने विषयों में प्रवृत्ति न होना ही इंद्रिय जय है। इंद्रियों एवं उनके स्वामी मन को विषयों को हटाने के लिए उन्हें अन्तर्मुख होने का कोई कार्य दिया जाए। जैसे— रोते हुए बालक को उसकी माता खिलौना देकर अथवा बातों में लगाकर उसका ध्यान परिवर्तित कर देती है, जिससे बालक रोना बंद कर दूसरी और लग जाता है, ठीक वैसे ही चित्तवृत्तियों को एक कार्य में संलग्न कर उन्हें एक स्थान पर एकाग्र करने का प्रयत्न किया जाता है।
इंद्रियों को नियंत्रित करने के लिए महर्षि पतंजलि द्वारा दिया गया यम- नियम का सिद्धांत सर्वोत्तम माना गया है।
यम— ब्रह्मचर्य, सत्य, अहिंसा, अस्तेय एवम् अपरिग्रह।
नियम— सोच, संतोष, तप, स्वाध्याय एवम् ईश्वर प्राणी धन है।
इसमें अस्तेय से तात्पर्य है—चोरी न करना एवम् अपरिग्रह से तात्पर्य है— जरूरत से ज्यादा संग्रह न करना।
अहिंसा में भावनात्मक एवं शारीरिक हिंसा दोनों आती हैं। इसी प्रकार सोच से अभिप्राय मन की सोच से है। अक्सर व्यक्ति मन की सोच न करने के कारण पूर्वाग्रहों से ग्रस्त होकर अपने व्यक्तित्व पर नकारात्मक प्रभाव डालता है। इसलिए मनुष्य को पतंजलि के उपरोक्त सिद्धांतों को अपनाकर इंद्रियों के स्वामी मन पर विजय प्राप्त करके दोहरे व्यक्तित्व की समस्या पर विजय प्राप्त करनी चाहिए।
इस प्रकार वह दोहरे व्यक्तित्व से मुक्ति पाकर समाज में अपनी प्रतिष्ठा को बरकरार रखते हुए, सबके साथ समता का व्यवहार करता हुआ, हर समय परमानंद की अनुभूति प्राप्त कर, अपनी जीवन यात्रा पूरी करेगा।