280. गुरु की गुरुत्ता

श्री गणेशाय नमः

श्री श्याम देवाय नमः

गुरु का वास्तविक अर्थ तो यही होता है कि— जो जीवन में गुरुता यानी वजन शक्ति बढ़ाए। यह गुरुता भौतिक पदार्थों से नहीं बल्कि सत- शास्त्रों के निरंतर अध्ययन और चिंतन मनन से ही संभव है।

ईश्वरीय माया के वशीभूत मनुष्य को सांसारिक प्रपंच से निकालकर उसकी अंतरात्मा में विराजमान ईश्वरीय तत्व को जाग्रत करने वाली सत्ता का नाम गुरु है।

शिष्य परिश्रमी हो, उसमें भक्ति भाव हो, गुरु के प्रति विश्वास हो, प्रेम हो, सम्मान हो तो उसे गुरु से हर आवश्यक वस्तु प्राप्त हो जाती है। गुरु कल्पवृक्ष के समान है। वह शिष्य की कमियों को दूर कर उसे विजय प्राप्त करना सिखाता है ताकि उसे लक्ष्य की प्राप्ति हो सके।

कबीरदास जी कहते हैं कि— भगवान और गुरु दोनों साथ में मिल जाएं तो गुरु के चरणों में समर्पित हो जाना चाहिए। कबीर जिस गुरु की ओर संकेत करते हैं, उस गुरु के दो चरण हैं।
पहला चरण बुद्धि और
दूसरे चरण विवेक है।
जिसने भी गुरु के इन दोनों चरणों को मजबूती से पकड़ लिया, उसका गुरुत्व और गुरुत्वाकर्षण दोनों बढ़ जाते हैं। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष उसी की ओर खींचे चले आते हैं।

गुरु उस सत्ता का नाम है जो शिष्य को अज्ञान रूपी अंधकार से निकालकर ज्ञान रूपी प्रकाश की ओर ले जाता है।
अज्ञान के पांच केन्द्र हैं— अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश।
गुरु इन पांचों से परे होता है। वह अपने शिष्य को असत्य से सत्य की ओर ले जाता है। भारतीय परंपरा में गुरु और शिष्य में कोई भेद नहीं है। जब गुरु शिष्य को उपदेश या ज्ञान देता है तो इस भावना से कि नया शिष्य उसके भीतर जन्म ले रहा है। उस समय वह ब्रह्म का स्वरूप होता है। क्योंकि वह सत्य का साक्षात्कार कर चुका होता है। इसलिए गुरु के भीतर साक्षात्कार की जो शक्ति है, उसे वह शिष्य में स्थानांतरित करने की क्षमता रखता है। इस रूप में वह शिव होता है और उसके भीतर निहित गुरु परंपरा की शक्ति गोरी बन जाती है।

गुरु वह शिव होता है जिसकी जिव्हा और ह्रदय में राम नाम का वास होता है, जिस कारण वह विष पीकर भी अमृतमय रहता है। वह उसी राम नाम के अमृत को शिष्य के हृदय में स्थापित करके उसे भी अमृतमय बना देता है।

गुरु जब हमारी ज्ञान शक्ति पर छाए विषय रूपी अंधकार को हटा देता है तो ज्ञान स्वयं प्रकाशित हो जाता है और सत्य की अनुभूति कराता है। जैसे जलते हुए अनेक कोयलों में अग्नि एक ही प्रज्वलित होती है परंतु वह हमें भिन्न-भिन्न रूपों में दिखाई देती है। यह भिन्नता कोयले के स्वरूप के कारण होती है। अग्नि तो एक ही है। उसी प्रकार ज्ञान में भी भेद नहीं है। गुरु ही ईश्वर सदृश हो जाता है और अपने शिष्य के विषय विकारों को मिटा कर उसे ज्ञान और साधना में दक्ष कर देता है।

जब एक बार ज्ञान रूपी अग्नि प्रज्वलित हो जाती है और सत्य का दिग्दर्शन हो जाता है तो विषय- वासनाएं संपर्क में आकर भी अपने आप समाप्त हो जाती हैं। ज्ञानी व्यक्ति निर्लिप्त हो जाता है। भारतीय संस्कृति में ज्ञान की यह प्रज्वलित अग्नि सन्निहित है और गुरु ज्ञान के शिखर है।

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