281. अहंकार का त्याग

श्री गणेशाय नमः

श्री श्याम देवाय नमः

मनुष्य अपने अहम् के कारण ही अहंकारी होता है। मैं और मेरे की भावना उसे और ज्यादा स्वार्थी बना देती है। अहंकार एक ऐसा अवगुण है जो किसी भी मनुष्य का पतन सुनिश्चित कर देता है। जहां अहंकार होता है, वहां पर सभी गुणों का लोप हो जाता है। अहंकार एक ऐसा ताला है जो मनुष्य के मन- मस्तिष्क के द्वार पर जड़ा होता है जो अन्य गुणों को अंदर प्रवेश नहीं करने देता।

अंहकार से प्रेरित होकर मनुष्य अस्थाई सुखों को खोजने और उन्हें प्राप्त करने के लिए अनेक उपाय करता रहता है। वह हमेशा यही सोचता है कि भौतिक वस्तुओं को प्राप्त करने के बाद वह सुखी हो जाएगा। इसलिए वह उस सुख को प्राप्त करने के लिए दिन-रात भागदौड़ करता रहता है। अगर वह भौतिक वस्तुओं को उपलब्ध करने से वंचित हो जाता है, तो उसके हृदय में क्रोध, द्वेष और दुख उत्पन्न होने लगता है।

हमारे बुजुर्ग हमेशा कहा करते थे कि— अहंकार में तीनों गए।
बल, बुद्धि और वंश।
ना मानो तो देख लो— कौरव, रावण और कंस।

अहंकारी मनुष्य हमेशा दूसरों को तुच्छ समझता है। अहंकार मनुष्य को दलदल में धकेल देता है। वह सच्चाई से परे एक कल्पना लोक में जीवन जीने लगता है। अहंकारी मनुष्य यही सोचता है कि वह जो कहता है, जो करता है, वही सत्य है, शेष सब झूठ है। अहंकार उसे जीवन के साथ सामंजस्य स्थापित करने वाली परिस्थितियों से भी दूर कर देता है। मनुष्य अहंकार के वशीभूत होकर आवेश में आकर ऐसे फैसले ले लेता है जो उसके लिए ठीक नहीं रहते। फिर भी उन फैसलों को स्वाभिमान से जोड़कर देखने लगता है।

मनुष्य में अहंकार की भावना कहां से आती है— मैं और मेरे से यानी जो कुछ हूं मैं ही हूं। आपने अक्सर कहते सुना होगा कि— मेरे सामने उसकी क्या औकात? यानी अहंकार, जो सब समस्याओं का मूल है। इस समस्या का समाधान सिर्फ अध्यात्म द्वारा ही संभव है। ध्यान और साधना से मनुष्य को शांति का अनुभव होता है। अगर दूसरे तरीकों से समस्या का समाधान किया जाएगा तो वह क्षणिक होगा। कुछ देर के लिए या कुछ दिनों के लिए समस्या विलुप्त तो हो जाएगी लेकिन कुछ समय बाद फिर वही हालात हो जाएंगे। किंतु आध्यात्मिक उपायों से जब समस्या को सुलझाया जाएगा तो समाधान स्थाई होगा।

इसके लिए हमें जीवात्मा और परमात्मा का संबंध समझना होगा। हमें निद्रा से जागना होगा और आत्मा को मोह में डालने वाले भावों से अलग रखना होगा। निद्रा से जागना सरल है परंतु सांसारिक जीवन की घोर निद्रा से जागना कठिन है। सबसे पहले तो हमें जागने की इच्छा हृदय में प्रकट करनी चाहिए। जिससे हृदय में व्याकुलता उत्पन्न हो और निरंतर सतर्क रहना चाहिए। यह सतर्कता वैसे ही होनी चाहिए जैसे की रस्सी पर खेल दिखाने वाले नट की होती है, जब नट एक बार रस्सी पर अपना तोल साध लेता है तो वह उस पर सो नहीं सकता। उसे जागना ही पड़ता है। इसलिए इस मोह माया के जगत में अपनी रक्षा करने के लिए मन पर हमेशा नियंत्रण रखना आवश्यक है। हमें यह विश्वास करना होगा कि परमात्मा हमारे अंदर विराजमान है।

इसके लिए आध्यात्मिक चेतना को जगाना आवश्यक है। अगर एक बार आध्यात्मिक चेतना जाग गई तो फिर कोई समस्या नहीं रहेगी। जब मीरा की आध्यात्मिक चेतना जागी तो महाराणा प्रताप जैसा शूरवीर भी उन्हें संकल्प से डिगा नहीं सका। संत कबीर की आध्यात्मिक चेतना जागी तो कोई भी पथ से विचलित नहीं कर सका। आध्यात्मिक चेतना जाग जाने के पश्चात् मनुष्य इस लोक में रहते हुए भी दूसरे लोक का प्राणी बन जाता है। फिर वह इस जगत् के मिथ्याचार से अपना संबंध तोड़ लेता है और अपनी आत्मा में रमण करने लगता है।

उस समय मैं और मेरा खत्म हो जाता है, विलुप्त हो जाता है और सब तेरा हो जाता है। समस्याओं की जड़ ही मेरापन है और यह मेरापन अहंकार के कारण ही है। समस्यामुक्त जीवन का समाधान आध्यात्मिकता में है। प्रत्येक मनुष्य में अपने आप को बदलने की, सुधरने की शक्ति है। इसमें कोई संदेह नहीं कि अहंकार और अकड़ वास्तव में ऐसी दौड़ है, जहां पर जीतने वाला हमेशा हारता है। इसलिए अध्यात्मिक समाधान के द्वारा अहंकार का त्याग कर विनम्रतापूर्वक रहना ही श्रेयस्कर है।

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