286. भोग और त्याग का समन्वय

श्री गणेशाय नमः

श्री श्याम देवाय नमः

मनुष्य जीवन को सुचारू रूप से चलाने के लिए भौतिक पदार्थों की महत्ती आवश्यकता है। आज के दौर में मानव ऐशो- आराम की जिंदगी जीना ज्यादा पसंद करता है, जिससे उसकी भौतिक वस्तुओं को पाने की लालसा दिनों- दिन बढ़ती जाती है। वह भौतिक पदार्थों का इतना आदी हो चुका है कि अगर इनके जीवन की कल्पना करना संभव नहीं है। भौतिक सामग्री का उपयोग हम किस भावना से कर रहे हैं, यह समझना बहुत जरूरी है।

वेदों में भी मनुष्य जीवन को सम्यक रूप से चलाने के लिए भोग और त्याग का अद्भुत समन्वय स्थापित करते हुए कहा गया है कि— संसार की समस्त वस्तुओं का उपयोग त्याग भावना से करो यानी त्याग और भोग साथ-साथ। त्यागी तो योगी होता है और भोगी संसारी। ऐसे बहुत से ऋषि- मुनि, तपस्वी हुए हैं, जिन्होंने मानव जाति को पुरुषार्थ का उपदेश दिया, अपने जीवन निर्माण तथा परिवार व राष्ट्र के लिए कर्म का उपदेश दिया, उन्होंने साम्राज्य का त्याग किया और तप- त्याग के द्वारा कैवल्य (मोक्ष) प्राप्त किया।

वे संदेश देते हैं—पुरुषार्थ के द्वारा अपनी समस्याओं को हल कर, अपने हृदय को विशाल बनाना चाहिए। संकीर्ण विचारों, स्वार्थ लिप्सा की प्रवृत्ति से ऊपर उठकर परोपकारी बनना चाहिए। उन्होंने खुद अपने कर्मों पर विजय प्राप्त कर दुनिया को त्याग का मार्ग बताया। वास्तव में भोग और त्याग दोनों हमारे जीवन की अवस्था हैं। आवश्यकता है, दोनों में संतुलन बैठाने की। हम त्याग भी करते हैं और भोग भी, लेकिन हम कितना त्याग करते हैं और कितना भोग, यही बड़ा प्रश्न है।

प्रत्येक वस्तु का उपभोग करते हुए हमारी भावना त्याग की होनी चाहिए। जिस प्रकार कमल कीचड़ में होता है, उसका पत्ता पानी के ऊपर तैरता है, लहरें रात- दिन उसके ऊपर से गुजरती हैं, लेकिन आप पत्ते को देखें, सुखा मिलेगा। जल की एक बूंद भी उस पर टिक नहीं पाती। किचड़ और जल में रहते हुए भी वह उनसे लिप्त नहीं होता। ठीक उसी प्रकार मनुष्य को भी भौतिक वस्तुओं का उतना भोग करना चाहिए, जितना कि हमारा जीवन सम्यक रूप से चले। यही आनंद का नैतिक सूत्र है।

संसार में रहते हुए संपूर्ण भौतिक सामग्री का संग्रह करो, परंतु दूसरों के हितों को देखते हुए त्याग की भावना को आत्मसात करते हुए उसका उपयोग करना चाहिए। हमारी ऋषि परंपरा भी इसी सिद्धांत की अनुगामी रही है कि भोग उतना ही होना चाहिए, जितना जीवन के लिए जरूरी होता है। इसलिए वे यज्ञ करते थे। यज्ञ में प्रज्वलित होने वाली अग्नि भी हमें अनेक प्रकार से प्रेरणा देती है। समस्त यज्ञीय प्रक्रिया हमें यह संकेत करती है कि अपने जीवन के व्यवहार व विचारों में त्याग भावनाओं को जगाओ।

अग्नि में मुख्य रूप से तीन गुण होते हैं— प्रकाश, ताप और गति।

1.प्रकाश— यज्ञाग्नि हमें संकेत करती है कि प्रकाशित हो जाओ, न केवल वस्त्र, पात्र, भवन, वाहन, धन-संपत्ति आदि भौतिक पदार्थों से प्रकाशित हो, बल्कि सत्य, प्रेम, दया, संयम, त्याग, तप, सेवा, ज्ञान- विज्ञान से अपने अंत:करण व आत्मा को भी प्रकाशित करो।

  1. ताप— यज्ञाग्नि हमें प्रेरित करती है कि— राग, द्वेष, ईर्ष्या, अहंकार, आलस्य, प्रमाद, स्वार्थ, मोह से संबंधित अपनी कुवासनाओं को, जो हमें कुमार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करती हैं और हमें दुखी करती हैं, उन कुवासनाओं को जलाओ।
  2. गति— यज्ञाग्नि हमारे अंदर चलते रहो, बढ़ते रहो, रुको नहीं की भावना भरती है। बाधाएं आएंगी, कष्ट आएंगे, असफलता भी मिलेगी, फिर भी हताश, निराश ना हो, नया उत्साह, नई प्रेरणा, नए संकल्प लेकर उठो, बढ़ो, जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो, चलते रहो। यज्ञ के अंत में “सर्वे पूर्ण स्वाहा” कहकर समग्र द्रव्य पदार्थ यज्ञ वेदी में डाल दिया जाता है। यह इस बात का बोध कराता है कि एक दिन वर्तमान संसार में जो हमारा संबंध बना हुआ है, वह समाप्त हो जाएगा। सब कुछ यहीं रह जाएगा, केवल राख रह जाएगी। इसलिए भौतिक वस्तुओं से मोह न रखो, अन्यथा इनका वियोग होने पर दुख होगा। इसलिए अपने अंदर त्याग की भावना को जागृत रखो।

केवल भोगों में आसक्त हो जाना यह राक्षस प्रवृत्ति है। भोग जब तक त्याग के दायरे में रहता है, तब तक वह मनुष्य के लिए हितकर होता है। जब त्याग की भावना समाप्त हो जाती है, उसी समय मनुष्य की लालसा विशाल रूप ले लेती है, जिसका कोई अंत नहीं है। इस संसार में मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है जिसे भौतिक वस्तुओं को पाने की और संग्रह करने की लालसा निरंतर बढ़ती रहती है। उसकी भूख कभी शांत नहीं होती, इस सृष्टि का हर प्राणी और समस्त प्रकृति मनुष्य की इस लालसा रूपी प्यास को तृप्त करने में लगे रहते हैं। सृष्टि के कण-कण में त्याग समाहित है, लेकिन मनुष्य के भोग की यही भावना संपूर्ण विश्व के कल्याण के लिए एवं स्वयं मनुष्य के लिए भी आनंद में बाधक बनती है।

अत्यधिक भोग भोगने की प्रवृत्ति मनुष्य के जीवन को अधोगति की ओर ले जाती है। इसके विपरीत त्याग की भावना मनुष्य को मानसिक आनंद एवं शांति की प्राप्ति कराती है। त्याग पूर्वक भोग करने वाला मनुष्य अपने जीवन में सदैव खुश और संतुष्ट रहता है। उसका जीवन हमेशा दूसरों के लिए प्रेरणास्रोत बन जाता है। इस संसार की प्रत्येक वस्तु एवं पदार्थ पर परमात्मा का अधिकार है। इस संपूर्ण भौतिक संपदा का स्वामी वह परमात्मा ही है, इसलिए उसकी संपदा को त्याग भाव से भोगने वाला मनुष्य ही सुखी रहता है।

उसे समझना होगा कि संसार के समस्त उत्पन्न पदार्थ अनित्य हैं और इन पदार्थों से मिलने वाला सुख क्षणिक व दुखमिश्रित है। इसलिए कोई भौतिक पदार्थ की प्राप्ति न होने पर भी मन में शांति, प्रसन्नता, सन्तुष्टि की स्थिति बनाए रखें। उसको पाने की और भोगने की लालसा में शोक, चिंता, क्षोभ आदि को उत्पन्न न करें। भोग और त्याग का समन्वय ही संपूर्ण विश्व को शांति पथ की ओर अग्रसर करता है। इसलिए हमें ऋषि-मुनियों के निर्देशानुसार और मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के अनुगामी बनकर अपनी जिंदगी में भोग और त्याग में संतुलन स्थापित करते हुए अपने कर्तव्यों को अंगीकार करें तथा अपने परिवार, समाज, राष्ट्र तथा विश्व को भोग के साथ त्याग भावना की ओर अग्रसर करते हुए पथ- प्रदर्शक बनने की कोशिश करें।

1 thought on “286. भोग और त्याग का समन्वय”

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