श्री गणेशाय नमः
श्री श्याम देवाय नमः
यात्रा से अभिप्राय गतिमान होने से है यानी एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाना।
मनुष्य ही नहीं बल्कि पूरी सृष्टि अपने- अपने अनुसार यात्रा कर रहे हैं। सूर्य, चंद्रमा, पृथ्वी, नदियां, पेड़-पौधे सभी गतिशील है। यदि गतिशीलता नहीं होगी तो विकास प्रक्रिया बाधित हो जाएगी। इस धरा पर जन्म लेने के पश्चात् शिशु शारीरिक और मानसिक विकास के स्तर पर प्रत्येक क्षण गतिशील रहता है और इस तरह वह बाल्यावस्था, युवावस्था, प्रौढ़ावस्था और अंत में वृद्धावस्था को प्राप्त करते हुए अपना जीवन चक्र पूरा करता है। इसी प्रकार प्रत्येक जीव निरंतर अपने जीवन की रथ यात्रा को गतिशील बनाए हुए है, जब तक वह इस धरा पर है। जिस दिन गतिशीलता समाप्त हो जाएगी उसी दिन उसका जीवन चक्र समाप्त हो जाएगा।
सनातन परंपरा जीवन रुपी रथ यात्रा को बखूबी समझती है। उनका कहना है कि यात्रा चाहे किसी भी तरह की हो, वह सुखद तथा लाभकारी होनी चाहिए। जीवन धूप- छांव का खेल है। जब तक जीवन है, कठिनाइयां और बाधाएं तो आती ही रहेंगी। सुख का अर्थ यह नहीं है कि हमें कठिनाइयों का, बाधाओं का सामना करना नहीं पड़ेगा। मनुष्य के जीवन में हमेशा सुख नहीं रहता। जीवन रुपी यात्रा में दुखों का, कठिनाइयों का भी सामना करना पड़ता है।
प्रकृति जिसे नायक की भूमिका निभाने के लिए तत्पर करती है, उसे चुनौतियों का सामना भी करना पड़ता है। उसके मार्ग में भारी अवरोध उत्पन्न होते रहते हैं। दुष्कर परिस्थितियों से गुजरने पर ही वह तरासा, निखारा और संवारा जाता है। वक्त के थपेड़े उसको जीवन रूपी रथ यात्रा का मर्म समझा जाते हैं। जब तक वह जीवन में कठिनाइयों और चुनौतियों का सामना नहीं करेगा, तब तक उसे जीवन का मर्म समझ नहीं आएगा। ठहरे हुए समुद्र में नाविक सूझबूझ और कौशल नहीं सीखता। वह भी समुंद्र में उठते तुफानों में ही कुशल नाविक बनता है।
विषम परिस्थितियों को समस्या मानकर घुटने टेकने वाला मनुष्य चिंता और व्याकुलता के भंवर में जकड़ जाएगा। उसे बाहर निकलने का मार्ग मिलेगा ही नहीं। किसी भी कार्य में सफल न होने पर जहां एक मनुष्य हताश और निराश हो जाता है, वहीं दूसरा हार का ही उत्सव मनाता है। उसका कहना है कि हार तभी होती है, जब हार स्वीकार की जाए। यह सब अपने विचारों का फर्क है। कठिनाइयों और कष्टों से छुटकारा नहीं मिलता इन्हें भोगना ही पड़ता है। सकारात्मक विचारों से कठिनाई और कष्टों को शांत किया जा सकता है। समस्या से रूबरू नहीं होंगे तो समस्या हम पर हावी हो जाएगी।
अगर हमारे जीवन में ईश्वर अवरोध डालता है, कठिनाइयां उत्पन्न करता है तो उनका उद्देश्य हमें निराश और हताश करना नहीं बल्कि सशक्त करना है। दुष्कर क्षणों में ही मनुष्य संभावनाएं तलाशते हैं। तूफान की भांति कठिनाई ज्यादा देर तक नहीं रहती। विषम परिस्थितियों से ही हम अपने सामर्थ्य को जान पाते हैं। इसलिए डरिए नहीं, निर्भय होकर आगे बढ़िए। आगे बढ़ने वालों का पथ स्वयं खुलता जाता है। बाधाएं उनका कुछ भी नहीं बिगाड़ पाती। दुनिया उनका वंदन करती है। आगे बढ़ना ही एक शुभ कर्म माना जाता है।
अगर जीवन रूपी रथयात्रा में बाधाओं से डर कर हम पीछे हट गए तो हमें अपमान, पतन, दुख और अशांति मिलती है। यह सृष्टि सत्य और धर्म के बलबूते गतिमान है। यदि हम ईश्वर द्वारा प्रदान किए गए कार्य को करते हैं तो सृष्टि का संतुलन बना रहेगा और हम ईश्वर के कार्य को करने से डर जाएंगे तो असंतुलन आ जाएगा जो उसके विनाश का कारण बनेगा।
सभी जानते हैं कि अच्छा काम करने में बहुत संघर्ष है लेकिन संघर्ष करने से क्यों डरें क्योंकि जो डरा वह मरा। मृत व्यक्ति से तो वैसे भी कोई आशा नहीं की जा सकती। जो संघर्ष करता है, वही जीवन रूपी रथयात्रा में प्रगति करता है। वही जीवंत है। उसे ही यश, कीर्ति, पद, प्रतिष्ठा, मान- सम्मान, खुशी, शांति, आनंद की प्राप्ति होती है। अच्छा कर्म करने वाला मनुष्य अंदर से मजबूत, संतुष्ट और प्रसन्न रहता है और बुरा कर्म करने वाला अच्छे कर्म करने वाले की कभी बराबरी नहीं कर सकता और ना वह अच्छा कर्म करने वाले की भांति निर्भय और प्रसन्न रह सकता है। सत्कर्मी का अस्तित्व कभी नष्ट नहीं होता।
मनुष्य का जन्म अच्छा कर्म करने के लिए हुआ है। लेकिन स्वार्थ एवं लोभ के कारण जीवन भर बेईमानी का जाल बुनता नजर आता है और सत्कर्म से भागा रहता है। ईश्वर सबका पालनहार एवं सर्व शक्तिमान है। हमारी सनातन संस्कृति में धर्म के व्याख्या सूत्र बने हैं। जिन्हें उन्होंने ओढ़ा नहीं, साधना की गहराइयों में उतर कर पाया था। जीवन रूपी रथ यात्रा में आगे बढ़ते हुए धर्म को अपनाएं, उसका सही अर्थ समझें, धर्म को सही अर्थ में जिएं। धर्म हमें सुख, शांति, समृद्धि और समाधि अभी दे या भविष्य में, ये ज्यादा आवश्यक नहीं है। धर्म हमें समता, पवित्रता का ऐसा सूत्र देता है, जिससे हम हर परिस्थिति में आनंद की अनुभूति कर पाते हैं।
शुद्ध आचार, शुद्ध विचार और शुद्ध व्यवहार से जुड़ी चारित्रिक व्याख्याएं ही धर्म का वास्तविक स्वरूप है और इन्हीं में सांसारिक समस्याओं का समाधान छिपा है। इन धार्मिक सूत्रों को भूल जाना या उसके वास्तविक स्वरूप से अनभिज्ञ रहने का ही परिणाम है कि आज मनुष्य हर पल दुख और पीड़ा में रहता है। तनाव का बोझ होता है। चिंताओं को विराम नहीं दे पाता। लाभ- हानि, सुख- दुख, हर्ष- विषाद को जीते हुए जीवन के अर्थ को अर्थहीन बनाता है। अपनी जीवन रुपी रथयात्रा को वह भार समझने लगता है। जबकि वह जानता है कि इस भार से मुक्त होने का उपाय, उसी के पास, उसी के भीतर है, सिर्फ अंदर गोता लगाने की जरूरत है।
जब वह अपने अंतर्मन में झांकता है तो उसे महसूस होता है कि जीवन तो बहुमूल्य और आनंदमय है। ऐसे में उसके लिए आवश्यक है कि वह सोचे की मैं जो कुछ हूं, उसे स्वीकार करुं। आखिर स्वयं को स्वयं से ज्यादा और कौन जान सकता है, समझ सकता है। धर्म ग्रंथों के इन सूत्रों को देखते हुए हर मनुष्य को अपने जीवन के रथ का संचालन सही ढंग से करना चाहिए। पारिवारिक एकता के साथ जीवन यापन से घर में उल्लास और उमंग का रथ दौड़ने लगता है।
श्री कृष्ण जब अर्जुन के सारथी बनकर युद्ध क्षेत्र में गए तो वहां पर उन्होंने गीता का उपदेश दिया जो मनुष्य के लिए आध्यात्मिक जीवन का संविधान बन गया। गीता के अंतिम श्लोक में कहा गया है कि जहां श्री कृष्ण और अर्जुन हैं, वही श्री तथा विजय है। श्री कृष्ण विवेक और अर्जुन कर्म का प्रतिनिधित्व करते हैं। विवेक के हाथों में लगाम होनी चाहिए। हमारी धार्मिक परंपराओं के अंतर्गत भगवान जगन्नाथ, बड़े भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा की जगन्नाथपुरी यात्रा का संदेश यह भी है, कि वर्षा ऋतु में कृषि के रूप में जीवन प्राप्त करने का पारिवारिक स्तर पर प्रयास किया जाए। बहन के साथ यात्रा नारी को सशक्त सिद्ध करती है।
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