288. मन से करें संवाद

श्री गणेशाय नमः

श्री श्याम देवाय नमः

मनुष्य का जीवन उतार-चढ़ाव से भरा हुआ है। वह हर समय अपनी परेशानियों के बोझ को मन में दबाए रखता है। जिससे वह मानसिक कुंठा का शिकार हो जाता है। लेकिन कभी- कभी जीवन में ऐसे क्षण भी आते हैं, जब वह बेचैन हो जाता है और अपने मन की बात करना चाहता है, किंतु किससे कहे, यह उसे समझ नहीं आता और उसके सामने यह संकट खड़ा हो जाता है। ऐसे में उसे अपने मन से संवाद करते हुए, ईश्वर के साथ अपनी निकटता को और अधिक अनुभव करने का प्रयास करना चाहिए।

बहुत से संत मन को परमात्मा का सूक्ष्म रूप मानते हैं। भारत के कई संतों ने मन में परमात्मा को खोज लेने की बात कही है। मन पर नियंत्रण करके उससे संवाद करने के लिए ‘मन व इंद्रियों के जड़त्व’ को समझना चाहिए।
जैसे— मेरा मन एक यंत्र के समान जड़ वस्तु है।

यह अपने आप किसी विषय का चिंतन नहीं करता। मेरे मन में उठते हुए विचार मेरे अपने हैं। अपने देखा होगा कि हर मनुष्य के विचार अलग-अलग होते हैं। किसी- किसी के विचार ही एक- दूसरे के साथ मैच कर पाते हैं। मैं जिस किसी विषय के बारे में संवाद करता हूं, उसी विषय का ज्ञान मेरा मन मुझे करा देता है।

जिस प्रकार फोटोग्राफर की इच्छा के बिना कैमरे में अपने आप चित्र नहीं उतरते, वैसे ही मेरी इच्छा व प्रेरणा के बिना मेरा मन भी किसी वस्तु का ज्ञान मुझे नहीं कराता। मन मनुष्य के विचारों के मूल रूप का साक्षी होता है क्योंकि सारे विचार मन में ही उत्पन्न होते हैं। वह उनका परीक्षण करने में भी समर्थ होता है। विज्ञान ने भी मन की शक्ति को सबसे ऊपर माना है और उसे संकल्पशक्ति का नाम दिया है। जो सभी सांसारिक शक्तियों से श्रेष्ठ है, वह परमात्मा ही है।

मन की शक्ति को पहचानना ईश्वर को पहचानना है। मन से संवाद ईश्वर की कृपा प्राप्त करने की प्रार्थना है। जैसे दूरदर्शन प्रसारण कक्ष में बैठा उद्घोषक यह जानता है कि “चाहे मुझे दिखाई न दे” किंतु लाखों लोगों की आंखें तथा कान मुझे देख व सुन रहे हैं, ऐसा विचार कर वह कोई भी अनुचित क्रिया नहीं करता तथा अभद्र वाक्य नहीं बोलता, ऐसे ही हम अपने मन में स्वीकार करें कि ईश्वर मेरे पास ऐसे ही उपस्थित है जैसे मेरे माता- पिता उपस्थित हैं और अत्यंत प्रेमपूर्वक, पवित्र हृदय से की गई मेरी स्तुति- प्रार्थना को सुन रहा है। मेरी प्रार्थना सुनकर वह परम दयालुमय, कृपा करके, अवश्य ही मेरे से संवाद स्थापित करेगा, जिससे मुझे परमानंद और ज्ञान की प्राप्ति होगी।

मन से संवाद करना है तो उसे विकारों, मोह- माया के अंधेरे से बाहर लाना होगा। मन में प्रतिष्ठित ईश्वर के दर्शन के लिए मन का निर्मल होना आवश्यक है। वास्तविकता यह है कि मन, जड़ प्रकृति से बनी हुई एक जड़ वस्तु है, यह चेतन नहीं है। इसलिए इस मन में अपने आप कोई विचार नहीं आता और न ही यह स्वंय किसी विचार को उठाता है।

इस जड़ मन को चलाने वाला चेतन हमारी जीवात्मा है। जब जीवात्मा अपनी इच्छा से किसी अच्छे या बुरे विचार को अपने मन में उठाना चाहता है, तब ही उस विषय से संबंधित विचार मन में उत्पन्न होता है। जैसे— टेप में अनेक प्रकार की ध्वनियों का संग्रह होता है, ऐसे ही मन में भी अनेक प्रकार के विचार संस्कारों के रूप में संग्रहित रहते हैं। जब व्यक्ति अपनी इच्छा व प्रयत्न से टेप को चलाता है तो ध्वनियां सुनाई देने लगती हैं, अपने आप ध्वनियां सुनाई नहीं देती। इसी प्रकार मनुष्य मन में संग्रहित संस्कारों को अपनी इच्छा व प्रयत्न से उठाता है, तभी मन में विचार उत्पन्न होते हैं। यह मन के कार्य करने की एक पद्धति है, जिससे हम संवाद कर सकते हैं।

इसके अतिरिक्त मन का कार्य एक कैमरे यंत्र के समान भी समझना चाहिए। जैसे— फोटोग्राफर अपनी इच्छा से जिस वस्तु का चित्र उतारना चाहता है, उस वस्तु का चित्र लैंस के माध्यम से कैमरे का बटन दबाकर रील में उतार लेता है और जिस वस्तु का चित्र उतारना नहीं चाहता, उसका चित्र नहीं उतारता।
ठीक उसी प्रकार से जीवात्मा जिस वस्तु का ज्ञान प्राप्त करना चाहती है, उस वस्तु का ज्ञान मन में शरीर तथा इंद्रियों के माध्यम से संग्रहित कर लेती है। इस दृष्टांत में शरीर कैमरे के समान है, फोटोग्राफर चेतन जीवात्मा है, मन रील है, जिस पर चित्र उतरते हैं, तथा इंद्रियां लैंस के समान हैं। इसी प्रकार से कार, पंखा, मशीन आदि जड़ यंत्र बिना चेतन मनुष्य के चलाए, अपने आप नहीं चलते हैं, न रुकते हैं, ठीक वैसे ही बिना जीवात्मा की इच्छा तथा प्रेरणा से जड़ मन किसी भी संवाद की ओर न अपने आप जाता है, न उसका विचार आता है।

मनुष्य जब अपने मन के निकट होता है, तो सारी सृष्टि से निकटता बन जाती है। जो बात वह अपने मन से कर सकता है, वह किसी से भी कर सकता है। वास्तव में मनुष्य दूसरों के समक्ष अपनी छवि को लेकर सदैव चिंतित रहता है। जिनके साथ सदैव घर, परिवार में साथ रहा, उनसे भी मन के तल पर हमेशा दूरी बनाकर रखता है। हम अपने को समझाने के लिए चाहे कितने ही दावे कर लें, लेकिन वे सच्चाई के धरातल से कोसों दूर हैं। वास्तविकता यही है कि संसार में कोई भी संबंध ऐसा नहीं है, जिसे समरस कहा जा सके।

एक मनुष्य का मन ही है, जो उसकी समस्त भावनाओं, विचारों के मौलिक रूप का साक्षी होने के साथ-साथ उसके अच्छे व बुरे कर्मों का प्रत्यक्ष गवाह भी है। मनुष्य अपनी बुराइयों को सारी दुनिया से छुपा सकता है, लेकिन उसके मन रूपी कैमरे से नहीं छुपा सकता। लाख प्रयत्न करने के बाद भी कहीं न कहीं उसके मन के किसी कोने में अपने कर्मों के पाप- पुण्य का लेखा-जोखा मौजूद रहता है। अगर वह सभी से झूठ बोलता है और अपने पाप कर्मों को नहीं बताता, सिर्फ अपने पुण्य कर्मों का ही बखान करता रहता है तो उसके मन में कहीं न कहीं एक टीस जरूर उठती रहती है। जो उसको हर समय उसके पाप कर्म याद दिलाती रहती है, जिसके कारण वह सभी से दूरी बना लेता है।

मन को शब्दों की आवश्यकता भी नहीं होती। कोई विचार कहां से उपजा है, किस उद्देश्य को लेकर चलने वाला है, यह केवल स्वयं का मन ही जानता है। यदि उसे निंदा करना, चोरी करना, पाप कर्म जैसे दुर्भावनापूरक कार्य करते हुए आत्मग्लानि का भाव जाग्रत होता है तो वह किसी के लिए भी ऐसे भाव अपने मन में नहीं पनपने देगा। जो स्वयं को स्वीकार्य होगा, वह, वही दूसरों के लिए भी सोचेगा, तभी संतुलन स्थापित होता है। जो मनुष्य मन से संवाद करने में पारंगत हो गया, उसका बौद्धिक विकास हो जाता है। वह बिना विचलित हुए हर परिस्थिति का सामना निडरता से करते हुए अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर होता है क्योंकि उसके मन में हमेशा सकारात्मक विचार ही उत्पन्न होते हैं इसलिए उसे असफलता का मुंह नहीं ताकना पड़ता। उस पर ईश्वर की दया- दृष्टि हमेशा बनी रहती है।

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