ऊँ
श्री गणेशाय नम्ः
श्री श्याम देवाय नम्ः
हर व्यक्ति में दिव्यता के कुछ अंश मौजूद होते हैं। उनमें कुछ विशेषताएं होती हैं। मनुष्य का यह प्रथम कार्य है कि वह उन विशेषताओं को खोज निकाले और अपने मानव रूपी जन्म को सार्थक करे। क्योंकि ईश्वर की संरचना में सर्वाधिक श्रेष्ठ स्थिति मनुष्य की है। मानव शरीर पाने के लिए देवता भी तरसते हैं। देखा जाए तो सबसे ऊंचे पायदान पर मानव है। जानवर उससे नीचे हैं, लेकिन जो जितनी ऊंचाई पर रहता है, वह जब गिरता है, तो किस निम्न स्तर पर गिरेगा, कहा नहीं जा सकता। सबसे ऊंचे स्तर पर बैठा मनुष्य कभी-कभी जानवर से भी नीचे चला जाता है।
सनातन धर्म अनादि-अनंत है और इसको एकात्म सूत्र में बांधने वाले अप्रतिम व्यक्तित्व के अनेकों स्वामी हैं। जिन के पद-चिन्हों पर चलकर हम अपने जन्म की सार्थकता सिद्ध कर सकते हैं। हमारे अनेक ऋषि-मुनियों ने युगों पूर्व अवतरित इन महान संतों की जीवन सरिता को शब्दों में पिरो कर हमें एक अमूल्य धरोहर के रूप में अनेकों ग्रंथ प्रदान कीए हैं। इनसे शिक्षा प्राप्त कर हम उनके अद्भुत और अलौकिक जीवन को लोगों तक सही रूप में पहुंचाने का प्रयास कर, हम अपने जीवन को भी संवार सकते हैं। समाज में फैली बुराइयों और अवगुणों को खत्म करने के लिए ज्ञान का उद्गम अनिवार्य है। धर्म के नाम पर अनुचित, अनैतिक कार्यों में लिप्त लोगों के भ्रामक जाल को दूर फेंक कर मानवता के धर्म का प्रचार-प्रसार होना अत्यंत आवश्यक है। गांव से लेकर महानगरों तक धोखाधड़ी, तिकड़म, नारी अस्मिता का चीरहरण, जिस घटिया स्तर तक हो रहा है, वह जानवरों से भी घटिया स्तर का है। सक्षम होते ही माता-पिता को वृद्धाश्रम का रास्ता दिखाना क्या यह अच्छा संस्कार है। सामान्य व्यक्ति ही नहीं बड़े-बड़े पदों पर बैठे लोगों की करनी का खुलासा होता है तो लोग दांतों तले अंगुली दबा लेते हैं। सार्वजनिक जीवन में आदर्श, सत्य, संस्कार, धर्म का प्रवचन देने वालों तक की करनी आए दिन लोगों के सामने है।
यह सब कारण था कि राजकुमार सिद्धार्थ को मानव जीवन से नफरत हो गई थी। गोस्वामी तुलसीदास की आत्मा ने उसे झकझोर दिया था। ऐसे समय में किसी ऐसे सत्पुरुष की आवश्यकता होती है, जो मानव-जीवन में धर्म की टूटी हुई कड़ियों को फिर से जोड़कर उसे मजबूत बनाए और धर्म के वास्तविक स्वरूप को सबके सामने प्रस्तुत करें। इसका प्रथम मार्ग है आत्मसाक्षात्कार, अर्थात अपने आप को जानना। आत्मसाक्षात्कार के द्वारा ही मनुष्य अपने जन्म की उपयोगिता समझ सकता है। इसी मार्ग की साधना से सनातन धर्म के अनेक अनुयायियों ने अपने जन्म को सार्थक किया। आत्मसाक्षात्कार का यह मार्ग आधुनिक समय में भी काफी प्रासंगिक है, क्योंकि विविध सम्पन्नताओं से घिरे मनुष्य के दुख और असंतोष की सीमा नहीं है। हर धर्म-ग्रंथ के अनुयाई अपने-अपने मत को श्रेष्ठ सिद्ध करने में लगे हुए हैं। इस विकास की अंधी दौड़ में भीतर से खोखले होते जा रहे समाज के लिए आत्मसाक्षात्कार परम आवश्यक है। इस प्रयोजन को सफल बनाने के लिए संत महात्माओं के अप्रतिम जीवन और कार्यों पर प्रकाश डालते ग्रंथ जीवन प्रयोजन की पूर्णता का मार्ग दिखाते हैं। यह जीवन के शिखर तक पहुंचने में मानचित्र की तरह प्रमाणिक सिद्ध होते हैं। इनके जीवन से यह सीख मिलती है कि घटिया स्तर की सोच जब मनुष्य छोड़ देगा, उसी समय उसका मनुष्य के रूप में जन्म सार्थक होगा। वह महासागर की उत्ताल तरंगों को फांद कर अपने उदात्त-लक्ष्य का वरण कर सकता है।
मनुष्य में ऊर्जा का अनंत स्रोत है। इसलिए उसका संयम व उचित दिशा में संस्कार युक्त परवाह बहुत आवश्यक है। यदि ऐसा नहीं करता तो उसका अगला जन्म मनुष्य योनि में नहीं होगा, यह तो बिल्कुल स्पष्ट है। अगर कु-संस्कार उसके परिवार में घुस गये तो उसकी अगली पीढ़ी गलत रास्ते पर चली जाएगी क्योंकि घर के बच्चे बड़ों की नकल करते हैं और वे परिवार से जैसे संस्कार लेंगे, वही जीवन में चरितार्थ करेंगे। क्योंकि बहुत सारी साधना और तपस्या के बाद ही हमारे को मनुष्य योनि प्राप्त होती है और मनुष्य जीवन को फिर से प्राप्त करने के लिए अच्छे कर्मों का होना नितांत आवश्यक है।
Nice thoughts