35. स्वयं की पहचान

ऊँ
श्री गणेशाय नम्ः
श्री श्याम देवाय नम्ः

उपनिषद के चार महावाक्यों में एक महावाक्य है- अहम ब्रह्मास्मि अर्थात “मैं ही ब्रह्म हूँ”। तात्पर्य यह है कि- इस मायावी संसार में मानव केवल ईश्वर की सबसे सुंदर कीर्ति ही नहीं है, बल्कि वह इस ब्रह्मांड में प्रत्यक्ष रूप से ब्रह्म्र का अंश है।ब्रह्म का स्वरूप  है। रामचरितमानस में भी तुलसीदास ने कहा है कि- ईश्वर, अंश, जीव-अविनाशी, चेतन अमल सहज सुख रासी। अर्थात जीव ईश्वर का अंश है और इसलिए वह अविनाशी, चेतन, निर्मल और स्वभाव से ही सुख की राशि वाला है। लेकिन इस भौतिक संसार में अवतरित होकर वह अपने मूल स्वरूप को भूल जाता है। वह सदैव कुछ खोजने की, पाने की, संचित करने की, लालसा में लिप्त रहता है। वह यह पहचान ही नहीं पाता कि वास्तव में मेरा वजूद क्या है? वास्तव में उसको खुद पता नहीं होता कि वह कहाँ जा रहा है। वह भले ही यह न समझ पाए, किंतु उसकी यह जीवन रूपी यात्रा निरंतर चलती रहती है।

एक कहानी सुनी थी। एक बार एक घुड़सवार बहुत तेजी से सड़क से नीचे कच्चे रास्ते की ओर दौड़ रहा था। सड़क के दूसरी तरफ खड़े एक जानने वाले ने उसे आवाज लगाई, महोदय इतनी तेजी से कहाँ जा रहे हो? घुड सवार ने कहा नहीं पता। मेरे घोड़े से पूछ लो। वही तो हमें ले जा रहा है। वही हमारी जिंदगी को मुश्किल बना रहा है। वह घोड़ा कोई और नहीं बल्कि हमारा मन है। यह कहानी सुनाने का उद्देश्य यह है कि हम जीवन को सरल बनाने की दौड़ में शामिल नहीं हैं। हम इसे जटिल और कठिन बनाने का हर उपक्रम करते हैं। हम सब जिंदगी में ऐसे ही सवार हैं, जो नहीं जानते कि हम कहां जा रहे हैं क्योंकि हमने अपने मन रूपी घोड़े को खुला छोड़ दिया है। जीवन के उतार-चढ़ाव मनुष्य के अपने स्वभाव अनुसार होते हैं। क्योंकि हम अपने अस्तित्व को भूलकर भौतिक संसार के मायाजाल में फंस कर रह गए हैं। हम उस परमसाध्य एकमात्र परमात्मा, जिसे साध लेने पर कुछ भी साधना शेष नहीं रह जाती, उस ब्रह्म स्वरूप, निराकार परमात्मा के अस्तित्व को, जिसके हम अंश हैं, उसको भूल चुके हैं। उस साध्य में प्रवेश दिलाने वाले विवेक, वैराग्य, शम, दम इत्यादि दैवीय गुणों को हमने कब का पीछे छोड़ दिया है। हमने काम, क्रोध, राग, द्वेष वाली दूषित मानसिकता को अपने विचारों में शामिल कर लिया है। यह हमारा दुर्भाग्य है कि उस ब्रह्म का अंश होते हुए भी हम अपने को पहचान ही नहीं पाते।

महान वैज्ञानिक सर आइजक न्यूटन जब मृत्यु शैया पर थे तो उनके मित्रों ने उनसे पूछा कि वह अपने जीवन की संपूर्ण यात्रा को किस रूप में देखते हैं ? इस पर उसने कहा था कि मैं यह तो नहीं जानता हूं कि मेरी बातों को दुनिया किस रूप में सोचती है। लेकिन हकीकत तो यह है कि मैं जीवन भर एक छोटे बच्चे की तरह किसी समुद्र-तट पर कंकड़ पत्थर ही चुनता रहा। जबकि सत्य का अगाध सागर बिना किसी खोज के मेरी नजरों के सामने बेकार ही पड़ा रहा। उसे नहीं देख सका। गंभीरता से विचार किया जाए तो क्या ऐसा प्रतीत नहीं होता कि हम सभी में एक आइजक न्यूटन छिपा हुआ है, जो ज्ञान और सत्य के अथाह सागर के किनारे बैठ कर भ्रमवश कंकड़ पत्थर चुन-चुन कर अपनी थैलियों को भरता रहता है और एक दिन सहसा ही उसे आत्मज्ञान होता है कि उनके जीवन भर की कमाई के रूप में थैले में रखे गए धन-दौलत तो मिट्टी के मोल सरीखे हैं। असली मोतियों को तो वह अभी तक स्पर्श भी नहीं कर पाया है क्योंकि मनुष्य ने अमृत की खेती करना बंद कर दिया है।

एक बार भगवान बुद्ध भिक्षा के लिए एक किसान के यहां पहुंचे। बुध को भिक्षा के लिए आया देखकर किसान उपेक्षा से बोला- मैं हल जोतता हूं और तब खाता हूँ। आपको भी हल जोतना और बीज बोना चाहिए और तब खाना चाहिए। बुद्ध ने कहा मैं भी खेती ही करता हूँ। इस पर किसान को जिज्ञासा हुई। वह बोला- मैं न तो आपके पास हल देखता हूँ, न बैल और न ही खेत। तब आप कैसे कहते हैं कि आप भी खेती करते हैं। बुद्ध ने कहा- मेरे पास श्रद्धा के बीज, तपस्या रूपी वर्षा, प्रजा रूपी जोत और हल हैं। विचार रुपी रस्सी है। समृति और जागरूकता रूपी फाल और पेनी है। मैं वचन और कर्म में संयत रहता हूं। मैं अपनी इस खेती को बेकार घास से मुक्त रखता हूँ और आनंद की फसल काट लेने तक प्रयत्नशील रहने वाला हूँ। अप्रमाद मेरा बैल है, जो बाधाएं देखकर भी पीछे मुंह नहीं मोड़ता है। वह मुझे सीधा शांति धाम तक ले जाता है। इस प्रकार मैं अमृत की खेती करता हूँ। बुध के कहने का आशय यह है कि- हमें जो बहुमूल्य मानव शरीर मिला है उसे हमें केवल प्रभु की साधना में लगाना चाहिए। जीवन में उस परमात्मा की ही तलाश में अपना सारा ध्यान केंद्रित करना चाहिए। केवल मानव शरीर से ही उसे साधा जा सकता है। उसे पाया जा सकता है। उसे समझा जा सकता है। मानव जीवन पाकर तथा इस मार्ग पर आकर यदि आपको यह समझ में नहीं आता तब इससे बड़ा नुकसान और कुछ नहीं हो सकता। लेकिन अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि- जब मनुष्य को आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है, तब तक वह जीवन के आखिरी पड़ाव पर पहुंच चुका होता है। अर्थात बहुत देर हो चुकी होती है। क्या हमें अपनी पहचान जानने का कोई अधिकार नहीं है, यह प्रश्न हमें स्वयं से पूछना चाहिए।

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