38. वाणी का महत्व

वाणी व्यक्तित्व का आभूषण है। वाणी से ही व्यक्ति के व्यक्तित्व की पहचान होती है। मधुर वाणी हर किसी का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर लेती है। छोटे से छोटे व बड़े से बड़े कार्य जो बड़े-बड़े सूरमा भी नहीं कर पाते, वे केवल वाणी के माधुर्य से संपन्न हो जाते हैं। मधुर वाणी का सबसे बड़ा उदाहरण कोयल और कौवा हैं। दोनों का रंग काला होते हुए भी मधुर वाणी की वजह से सभी कोयल को स्नेह करते हैं, और उसे शुभ मानते हैं। जबकि कोए की कर्कश वाणी के कारण उसे अशुभ मानते हैं। मधुर वाणी मनुष्य के सौंदर्य में चार चांद लगा देती है। वह उसके बाहरी रूप को ही नहीं बल्कि आंतरिक रुप की खूबसूरती को भी निखार देती है। एक सामान्य नयन-नक्श, कद-काठी वाला मनुष्य भी वाणी के माधुर्य से खूबसूरत मनुष्यों की कतार में खड़ा हो जाता है। वाणी में आध्यात्मिक और भौतिक, दोनों प्रकार के ऐश्वर्य हैं। मधुरता से कही गई बात कल्याणकारी होती है, किंतु वही कटु शब्दों में कही जाए तो अनर्थ का कारण बन सकती है। कटु वाक्यों का त्याग करने में अपना और औरों का भी भला है।

वाणी की शालीनता और शीतलता मनुष्य के व्यक्तित्व का आकर्षण बढ़ाती है। मधुर एवम कर्ण प्रिय वाणी बिगड़े काम बना देती है। मीठी वाणी सफलता के द्वार खोल देती है और और तमाम उलझनों को सुलझा देती है। इसके उलट कर्कस वाणी से समस्याएं और गहराने लगती हैं। बने-बनाए काम बिगड़ने लगते हैं। इसलिए हमें सदैव मधुर वाणी को आत्मसात करना चाहिए। जो व्यक्ति सदैव मीठा बोलता है, उसके मित्रों, रिश्तेदारों और शुभचिंतकों का दायरा बढ़ता जाता है, मृदुभाषी होने की स्थिति में लोगों के सहयोग और समर्थन में वह अत्यधिक ऊर्जा का संग्रह कर लेता है। जबकि कटु वचन बोलने वाला व्यक्ति अकेला पड़ जाता है। उससे कोई बात भी करना पसंद नहीं करता। वह समाज और परिवार में अलग-थलग पड़ जाता है। जो लोग मन, बुद्धि व ज्ञान की छलनी में छानकर वाणी का प्रयोग करते हैं, वही उत्तम माने जाते हैं। जो व्यक्ति बुद्धि से शुद्ध वचन का उच्चारण करता है, वह अपने हितों को तो समझता ही है, जिससे वह बात कर रहा है, उसके हित को भी समझता है।

वास्तव में वाणी को संयम में रखने वाला व्यक्ति शिखर पर पहुंचता है। वाणी का संयम व्यक्ति को प्रखर बना देता है। वाणी संयम एक तरह से वाक्-सिद्धि है। जिसने अपनी वाणी को संयमित कर लिया, वह व्यक्ति अद्वितीय हो जाता है। लोग उसकी तरफ आकृष्ट होने लगते हैं। वाणी को संयमित करने वाला व्यक्ति स्वत: संस्कारों की खान में परिवर्तित हो जाता है। ऐसे व्यक्तित्व सदैव अनुकरणीय एवं प्रेरणादायक होते हैं। ऐसी  जीवन चर्या एक आदर्श जीवन चर्या है। अगर आज के युवा वर्ग ने अपनी वाणी को संयमित कर लिया तो वह राष्ट्र के निर्माण में अपना अहम योगदान देने के साथ ही सामाजिक परिवेश को पावन करेगा और वह राष्ट्र प्रगति के पथ पर अग्रसर होगा। भगवद् गीता में तीन प्रकार के तत्वों की चर्चा की गई है- शारीरिक तप, मानसिक तप तथा वाचिक तप शामिल हैं। वाचिक तप का आशय वाणी के प्रवाह से है। इसके संबंध में कहा गया है कि उद्वेग उत्पन्न न करने वाले वाक्य, हित-कारक तथा सत्य पर आधारित वचन एवं स्वाध्याय वाचिक तप है। इसलिए हमें अपने जीवन में वाणी रुपी तप अवश्य करना चाहिए। किसी मूर्तिकार की तरह हमें अपनी वाणी को तराशते रहना चाहिए। बोलने से पहले हमें अपने शब्दों को तोल लेना चाहिए। हर शब्द में मिठास और शालीनता का रंग भरकर, मुख से दूसरों के बीच रखना चाहिए। आपकी वाणी ऐसी होनी चाहिए कि अगर कोई उसे सुने तो वाह-वाह करे। संत कबीर ने कहा भी है कि- ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोय। औरन को शीतल करे, आपहु शीतल होय। अर्थात मनुष्य को ऐसी वाणी बोलनी चाहिए, जिससे मन में भरे राग, द्वेष मिट जाएं। जो दूसरों को शीतलता प्रदान करे और खुद को भी शीतलता प्रदान करे।

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