42. अध्यात्म और वैराग्य

श्री गणेशाय नम्ः

श्री श्याम देवाय नमः

अध्यात्म और वैराग्य एक दूसरे से भिन्न हैं। अध्यात्म से अभिप्राय ईश्वर को पाने के लिए साधना करने से है। लेकिन वैराग्य से अभिप्राय सांसारिक त्याग से है। वैराग्य धारण करने वाले मनुष्य का नजरिया ये है कि— यदि हम संसार का त्याग कर देते हैं, तो हमें ईश्वर प्राप्ति हो जाएगी। लेकिन यह संभव नहीं है। अध्यात्म के लिए हमें अपने विकारों को त्यागने की जरूरत है, न कि संसार को त्यागने की। यहां इस संसार में ऐसे बहुत सारे लोग हैं, जो स्वयं को बैरागी बताते हैं और कथित तौर पर संसार को त्यागने की बातें करते रहते हैं। वे हर समय संसार को दोष देते रहते हैं। उन्हें हर समय यह चिंता सताती रहती है कि कहीं सांसारिक वस्तुएं उन्हें आकर्षित न कर लें। इसलिए वे लगातार उनसे भागते रहते हैं।

अब प्रश्न यह उठता है कि यदि आप किसी वस्तु के नियंत्रण में नहीं हैं अर्थात् आपने संसार की सुख-सुविधा को त्याग दिया है और आप विकारों से परे हो गए हैं, तो वह वस्तु आप को प्रलोभन कैसे दे सकती है ? जो मनुष्य इस संसार से भागकर साधना करना चाहते हैं, वे कमजोर साधक हैं, जो संसार में रहकर ही साधना करते हैं उनका कभी पतन नहीं होता। हमारे जीवन रूपी चक्र में तीन गुणों की प्रधानता होती है-सत्व, रजस और तमस। जब सत्व गुण आता है—तो हर कार्य में सतर्कता, ज्ञान, रूचि और आनंद बढ़ता है। जब रजोगुण आता है— तो हमारे भीतर इच्छाओं, स्वार्थ ,बैचेनी और दुख का उदय होता है। जब तमोगुण आता है— तो उसके साथ भ्रांति, आसक्ति, अज्ञान और आलस्य आते हैं। जो केंद्रित हैं, वह इन पर ध्यान देता है। इनका साक्षी बन जाता है। यदि आप आत्म- ज्ञान से परिपूर्ण हो चुके हैं, तो आपको किसी भी प्रकार का प्रलोभन आकृष्ट नहीं कर पाएगा, क्योंकि एकाग्रचित होना ही योग का मुख्य उद्देश्य है। यही वैराग्य है।

कहा गया है—कार्य में कुशलता ही योग है। योग जीवन जीने, मन व भावनाओं को संभालने, प्रेम से रहने और प्रेम को घृणा में न बदलने की कुशलता है। ये सभी गुण मिलकर व्यक्ति को सच्चा योगी बनाते हैं। योगी का अर्थ है -जो अपने कार्य को पूर्णता से करता है। सच्चा योगी कभी परिणाम की चिंता नहीं करता। योगी वह नहीं है, जिसनें सब कुछ छोड़ दिया है और हिमालय में बैठा हुआ है, जो अपने अंदर में विश्राम करता है, अपने भीतर के प्रकाश में डूब जाता है, उस योगी को ही अध्यात्म की प्राप्ति होती है।अध्यात्म कोई वस्तु नहीं है। जिसे हम बाजार से खरीद सकते हैं या यह हमें केवल पहाड़ों पर जाकर ही मिलेगी बल्कि अध्यात्म वहीं है, जहां पर आप हैं। लोगों के बीच में रहकर भी अध्यात्म को प्राप्त किया जा सकता है।

त्याग दिव्यता का एक गुण है। लेकिन कुछ वर्षों से हमने इसे गलत ही समझा है। हम आत्मज्ञान और त्याग की बाहरी धारणाओं में फंस गए हैं। प्रत्येक संस्कृति व धर्म की इसके बारे में अपनी ही विचारधारा है। कुछ कहते हैं कि— अमीर आदमी आत्मज्ञानी नहीं होता। यह सही नही है। आत्म ज्ञानी होने के लिए गरीब होना आवश्यक नही है। कुछ अन्य संस्कृतियां भी हैं जो यह सोचती हैं कि एक आत्मज्ञानी व्यक्ति या साधु को कपड़े नहीं पहनने चाहिए। उसे इन सांसारिक लोगों से ज्यादा मेल-जोल नहीं रखना चाहिए। उसे भौतिक वस्तुओं का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए।उनकी विचारधारा के अनुसार जो संसार में रहता है, जिनका अपना परिवार है, वो उनसे मिलता है, उनके साथ बैठता है, तो वो आत्मज्ञानी नहीं हो सकता। ये सरासर गलत धारणा है।

जब एक योगी अपने अस्तित्व के परमआनंद व परमसुख वाले स्वभाव को जान जाता है, तो उसके मस्तिष्क से अवगुणों का भय, संसार का भय आदि जैसे दुर्गुण भी मिट जाते हैं। यह बिल्कुल उसी तरह है जैसे डायबिटीज का मरीज, मिठाइयों से डरता है। उसे मिठाई को देखने से डर लगता है। इसके विपरीत जिसने अपने भीतर की मिठास को पा लिया है, वैसे व्यक्ति के सामने मिठाई हो या ना हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। यही परम वैराग्य है। जिसमें व्यक्ति न तो संसार से भयभीत है और न ही संसार से भाग रहा है। वह संसार में रहते हुए पूर्ण रूप से विरक्त और केंद्रित है। जब आप कोई कार्य करते हैं, तो आपको कर्म करना पड़ता है, लेकिन जब आप विश्राम करते हैं, तो आपको कोई कर्म नहीं करना पड़ता। लेकिन हम बिल्कुल विपरीत कार्य करते हैं। जब हम विश्राम करते हैं, तब लगातार कुछ न कुछ सोच रहे होते हैं, या कुछ करने का प्रयास कर रहे होते हैं। जबकि ऐसा नहीं होना चाहिए। जब आप किसी कार्य को करते हैं, तब उसे पूरी निष्ठा के साथ करिए। जब तक वह कार्य पूरा न हो जाए, तब तक आप विश्राम नहीं कर सकते। उसे पूरी लग्न और तन्मयता के साथ कीजिए। जब एक बार वह कार्य हो जाए तो बैठ जाइए और उसके बारे में सोचना बंद कर दीजिए।

यदि आपको ट्रेन पकड़नी है, तो आपको प्रयास करना पड़ेगा। तब आप घर पर बैठकर विश्राम नहीं कर सकते और यह भी नहीं कह सकते कि आप को ट्रेन पकड़नी है। जब एक बार आप ट्रेन में बैठ जाते हैं, उसके बाद ट्रेन के अंदर इधर-उधर दौड़ने से कोई लाभ नहीं है। इससे आप जल्दी अपने गंतव्य तक नहीं पहुंच सकते हैं। जब एक बार आप ट्रेन में बैठ जाए तो व्यर्थ की भाग-दौड़ न करें, बल्कि विश्राम करें। इसका अभिप्राय है गति के साथ जड़ता भी जरूरी है। इसी प्रकार ध्यान पर बैठने से पहले प्रयास करें। जब एक बार आप ध्यान करने के लिए बैठ जाएं, तब किसी प्रयास की आवश्यकता नही है। शुरू -शुरू में हमें पौधों को चारों ओर से घेरा लगाकर गाय-बकरी आदि से बचाना पड़ता है। वृक्ष बन जाने पर कोई भय नहीं रह जाता। तब तो सैकड़ों गाय-बकरियां आकर उसके नीचे आसरा लेती हैं। उसके पत्तों से पेट भरती है। इसी तरह साधना की प्रथम अवस्था में स्वयं को कुसंगति और सांसारिक विषय बुद्धि के प्रभावों से बचाना चाहिए।

एक बार अध्यात्म का अनुभव हो जाने पर कोई भय नहीं रहता। तब सांसारिक लोभ,मोह, वासना आदि आपका कुछ बिगाड़ नहीं सकेंगी। बल्कि अनेक संसारी लोग आपके पास आकर उसका अनुभव प्राप्त करेंगे। जब आपको अध्यात्म रुपी ज्ञान की प्राप्ति हो जाएगी, तब आप सही अर्थों में वैराग्य का अर्थ समझोगे और आत्म ज्ञान को प्राप्त करोगे।

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