श्री गणेशाय नमः
श्री श्याम देवाय नमः
मानव के चरित्र का उसके व्यक्तित्व निर्माण में सबसे बड़ा योगदान होता है। एक चरित्रवान व्यक्ति ही समाज और देश के उत्थान में अपना योगदान देकर, उसे विश्व में सर्वोपरि स्थान दिलवाने का माद्दा रखता है। यज्ञ की समिधा की तरह ही सुंदर चरित्र की खुशबू चारों ओर फैलती है। चरित्र ऐसी ज्योति है, जिसके अलौकिक प्रकाश से आत्मा की ज्योति को अखंडता और अमृता प्राप्त होती है। इसी से जीवन ज्योति भी जलती है।
चरित्र मानव के व्यवहारिक आभूषण के समान होता है। संयम और विचारों की दृढ़ता से व्यक्ति के चरित्र बल का अनुमान लगाया जा सकता है। यह एक ऐसी सुगंध है, जो सिर्फ चरित्रवान व्यक्ति के पास ही मिल सकती है, जिससे जीवन रूपी बगिया महक उठती है। कहने का अभिप्राय है कि— यदि चरित्र रूपी सुगंध जीवन रूपी बगिया से गायब हो गई, तो उस बगिया का कोई महत्व नहीं रह जाएगा। यहां तक कि कीट-पतंगे और भंवरे भी उसके रस का आस्वादन नहीं लेंगे। बाह्य शरीर पर रंग रोगन लगाकर हम उसे खूबसूरत रूप में तो ढाल सकते हैं, लेकिन जो चरित्र रुपी सुगंध होती है, वह कहां से लाएंगे। असली खूबसूरती और वह सुगंध तो केवल एक चरित्रवान व्यक्ति के पास ही होती है।
मानव बाहरी रूप को खूबसूरत बनाने के लिए तरह-तरह के प्रयोग करता है, इत्र आदि लगाकर उसे सुगंधित बनाने की कोशिश करता है, लेकिन एक चरित्रवान व्यक्ति के सामने इन सब का कोई महत्व नहीं होता। यह नकली सुगंध तो कुछ ही समय के बाद गायब हो जाती है। क्योंकि यह केवल बाहरी आवरण था, जो नष्ट हो गया। अंदर का प्रकाश तो चरित्र का है। जिसके आकर्षण से लोग खुद-ब-खुद खिंचते चले आते हैं।
चरित्र आत्मा का ऐसा चुंबक है, जिसकी खुशबू बहुत दूर से ही आ जाती है और हम उसकी तरफ खिंचे चले जाते हैं। यह चुंबक दरिद्र और रोगी व्यक्ति में भी हो सकता है। चरित्र की पूंजी जिसके पास है, वह चाहे निर्धन हो या रोगी, दुनिया का सबसे बड़ा पूंजीपति बन जाता है। चरित्र ऐसी पूंजी है, जो सबको अपनी और झुकाने की क्षमता रखती है। इस पूंजी को कमाने के लिए न तो किसी के शोषण की आवश्यकता पड़ती है, न तो व्यापार, नौकरी ,खेती या मजदूरी करने की आवश्यकता पड़ती है। इसके लिए संवेदना, सद्गुण और स्वधर्म का सम्यक् पालन करना होता है। इसे प्राप्त करने के लिए किसी राजा-महाराजा या राजकुमार का होना भी आवश्यक नहीं है। चरित्र रूपी पूंजी को एक सामान्य मानव भी अर्जित कर सकता है।
चरित्र रूपी धन के स्वामी को अपनी पूंजी को सुरक्षित करने के लिए न तो किसी बैंक में जमा करने की आवश्यकताक है और न ही उसे चोरों से बचाने के लिए रात भर जागने की जरूरत है। क्योंकि यह ऐसी पूंजी है, जिसे चोर चुरा नहीं सकते, धूप सुखा नहीं सकती, अग्नि जला नहीं सकती और बारिश उसे गला नहीं सकती। यहां तक की आंधी और तूफान भी उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकते। इसे कोई नष्ट करने की हिमाकत नहीं कर सकता, क्योंकि यह मानव की आत्मा रूपी तिजोरी में सुरक्षित रखी हुई है। यह मानव के इस नश्वर शरीर के समाप्त हो जाने के बाद भी इस संसार में फलती-फूलती रहती है।
ऐसे ही एक चरित्र के धनी व्यक्ति हैं—स्वामी विवेकानंद। जिसका उसके विरोधियों ने कई बार चरित्र हनन करने की कोशिश की। लेकिन उनका व्यक्तित्व विलक्षण था। उसके दो उदाहरण में प्रस्तुत करना चाहती हूं— एक बार स्वामी जी के पास किसी विदेशी महिला को भेजा। उसने स्वामी जी से कहा मैं आपसे शादी करना चाहती हूं। स्वामी जी ने कहा—मैं तो ब्रह्मचारी हूं देवी, आप मुझसे ही क्यों विवाह करना चाहती हैं। महिला ने जवाब दिया—क्योंकि मुझे आपके जैसा ही एक पुत्र चाहिए, जो पूरी दुनिया में मेरा नाम रोशन करे और वह केवल मुझे आपसे शादी करके ही मिल सकता है। इस पर स्वामी जी ने कहा—इसका एक और उपाय है। विदेशी महिला ने बड़े आश्चर्य से पूछा—वह क्या है? स्वामी जी ने मुस्कुराते हुए कहा—आप मुझे ही अपना पुत्र मान लीजिए और आप मेरी मां बन जाइए, ऐसे में आपको मेरे जैसा पुत्र भी मिल जाएगा और मुझे अपना ब्रह्मचर्य भी नहीं तोड़ना पड़ेगा। महिला हतप्रभ होकर विवेकानंद को देखती रह गई।
जब विरोधियों की मंशा नाकाम हो गई तो उन्होंने शहर की एक प्रसिद्ध वेश्या को उसके पास भेजा। जैसे ही वह स्वामी जी के पास पहुंची, तो उन्होंने पूछा—कैसे आना हुआ मां? इतना सुनना था कि वह वेश्या रोते हुए बोली—जीवन में पहली बार किसी के मुंह से मां शब्द सुन रही हूं। यह मेरा अहोभाग्य है और स्वामी जी के चरणों में गिर पड़ी। स्वामी जी के चरित्र की उत्कृष्टता के सम्मुख उनके विरोधियों की मंशा एक बार फिर विफल हो गई। यह होती है— चरित्र रूपी पूंजी।
इस पूंजी का मालिक चैन से सोता है। आराम करता है। वह किसी से नहीं घबराता, बल्कि उससे सभी घबराते हैं। हमें यह कभी नहीं बताया या पढ़ाया जाता है कि मानव पिछले 500 वर्षों में चरित्र के मामले में कितना नीचे गिरा है। मानव चरित्र पूरी तरह से निर्धन होता जा रहा है। जबकि मानव की संस्कृति और सभ्यता का यह आधार है। आज मानव हर समय हताशा और निराशा की अवस्था में रहता है। उसका सुख-चैन कहीं खो गया है। अकूत मात्रा में धन संपत्ति होते हुए भी वह दुखी क्यों है? इस पर गहन अध्ययन करेंगे तो बात समझ में आएगी कि मानव के अंदर मानवता, जो इंसान की सबसे बड़ी स्थाई पूंजी है, उससे वह खाली हो गया है। नैतिकता और सद्गुणों की पूंजी से वह कंगाल हो गया है। उसकी आंतरिक शांति खत्म हो गई है। वह हमेशा भाग दौड़ भरी जिंदगी को ढोता है। क्योंकि आगे बढ़ने की लालसा और गला- काट प्रतिस्पर्धा के कारण जिंदगी बोझ लगने लगी है। ऐसे में चरित्र रूपी पूंजी को वह भूल गया है।
बचपन में मिले संस्कारों का प्रभाव जीवन भर किसी न किसी रूप में असर डालता ही है। यदि अपनी संतानों को चरित्रवान, बलवान, साहसी और संवेदना से युक्त बनाना है, तो उन्हें ऐसे संस्कार देने चाहिए, जिनसे उनका संपूर्ण जीवन कुंदन बन जाए और वे देश व समाज की उन्नति में अपना योगदान दे सकें।
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