44. सुख-दुख

श्री गणेशाय नमः

श्री श्याम देवाय नमः

मानव जीवन रूपी उतार-चढ़ाव में, धुप और छांव की तरह सुख और दुख आते जाते रहते हैं। क्योंकि उतार-चढ़ाव जीवन का आधारभूत नियम है। शायद दुनिया में कोई ऐसा व्यक्ति हुआ हो, जिसके जीवन में सुख-दुख न हों। कुछ लोग यह भी मानते हैं कि— सुख-दुख जीवन में नहीं होंगे तो जीवन निरस हो जाएगा। हमारी कहावतों में भी हमेशा कहा जाता है कि समय एक जैसा नहीं रहता। जीवन का नियम है —बदलाव।

मनुष्य जीवन पर्यंत तमाम दुखों से जूझता रहता है। इन दुखों से मुक्ति पाने एवं सुख की ओर कदम बढ़ाने के लिए मनुष्य तमाम तरह के उपाय करता है। लेकिन यह भी सत्य है कि सुख और दुख दोनों ही मनुष्य के अपने कर्मों का फल होते हैं। सुख के लिए वह भरपूर प्रयास करता है और दुख जाने-अनजाने किए पापों के कारण उसके सिर का बोझ बनते जाते हैं। यह भी एक विडंबना है कि दुखों से पिछा छुड़ाकर कुछ ही लोगों को सुकून की प्राप्ति हो पाती है। साथ ही यह भी पता नहीं होता कि सुखों की अवधि कितनी लंबी होती है। सुख रुपी मर्ग-मरीचिका की तलाश में अधिकांश लोगों की झोली अतृप्ति, असंतोष, अभाव,असफलता और उनसे उपजे अवसाद से ही भरी होती है।

लोग भटकते तो सुख की प्राप्ति के लिए हैं, परंतु कभी कभार ही इसमें सफलता मिल पाती है। प्रत्येक व्यक्ति की यही पीड़ा और वेदना है। सुख का आनंद वही जान पाता है, जिसने सुख प्राप्त किया हो।अपने कर्मों का सुख भोगना उसका अधिकार है। यदि वह सुख अन्य के साथ बांटता है तब भी अपने सुख पर उसका अधिकार वैसा ही अक्षुण्य रहता है। सुख की तलाश में भटकते लोग यह भूल जाते हैं कि दुख कहीं बाहर से नहीं आता बल्कि उनका स्रोत प्रायः हमारे भीतर ही होता है। चाहे हम कितना भी दुखों के कारणों को कहीं बाहर ढूंढना चाहें, लेकिन उनके लिए कहीं न कहीं हम स्वयं जिम्मेदार होते हैं। ऐसे में यदि समस्या स्वजनित है तो उसके समाधान के लिए उपाय भी स्वयं ही तलाशने होंगे। ये समाधान परिस्थितियों को बदलने से नहीं मन: स्थिति को बदलने से संभव होते हैं।

दुख जिस सघनता से आया है, वैसा ही रहेगा, चाहे जितने लोगों से चर्चा कर ली जाए। सुख का बढ़ जाना और दुख का कम हो जाना मात्र एक भ्रम है। जब मनुष्य अपने सुख की अभिव्यक्ति करता है तो इससे तात्पर्य है कि उसका अहम् संतुष्ट हो गया है। उसे दूसरों की अपेक्षा ऊपर उठे होने की अनुभूति होती है। दुख में प्राप्त होने वाली संवेदनाएं भी एक तरह से उसके अहम् को संबल देने का कार्य करती हैं। क्योंकि व्यक्ति अपने दुख से इतना दुखी नहीं होता, जितना दूसरों के सुख से होता है। यह मानवीय स्वभाव है। जब वह दूसरों को दुखी देखता है तो उसे सुकून मिलता है। जिससे वह खुश होता है।

दुखों से मुक्ति पाने के लिए हमें अपने अंतर्मन की गहराई में उतरना होगा। हमें अहम् को बाहर ही छोड़ना होगा। हमें समझना होगा कि अपने साथ उत्पन्न हुई समस्याओं के लिए मैं स्वंय उत्तरदायी हूं। बाहर जो घटता है, वह हमारे अपने कर्मों का ही फल है। हमें स्वयं से जुड़ी वास्तविकताओं को समग्रता से स्वीकार करना होगा। सुख हो या दुख, आनंद हो या विषाद, यश हो या अपयश, ऐसे ही तमाम भावों को समझकर उनका सही मर्म आत्मसात् करना होगा। हमें स्वीकार करना होगा कि ये स्थितियां कहीं ना कहीं हमारी स्वयं उत्पन्न की हुई हैं। स्वयं पर जिम्मेदारी लेने से न सिर्फ हमारा जीवन के प्रति दृष्टिकोण बदलेगा ,बल्कि परिस्थितियों से निपटने में भी हमें शक्ति मिलेगी।

सुख की अनुभूति को यदि पूर्ण रूप से अंतर ग्राह्य किया जाए तो सद्कर्म करने की प्रेरणा जागृत होती है। दुख की सघनता को यदि पूर्ण रूप में आत्मसात् किया जाए तो पश्चाताप पूर्ण होता है और मन सचेत होता है। जब हमें सुख की प्राप्ति होती है तो उसे हम ही भोगते हैं। हमें यह समझना होगा कि हमारा सुख कोई अन्य नहीं भोग सकता। सुख में तो हम बड़े आत्मविश्वास से कहते हैं कि यह तो हमारे अच्छे कर्मों का फल है।

लेकिन जब दुख आते हैं तो हम यह भूल जाते हैं कि यह हमारे बुरे कर्मों का फल है। क्योंकि हमारा अहम् हमें यह स्वीकार करने ही नहीं देता कि हमने बुरे कर्म किए हैं। फिर हम सोचते हैं कि ईश्वर ने हमारे साथ नाइंसाफी की है। किसी दूसरे के बुरे कर्मों का फल हमें भोगना पड़ रहा है। सुख और दुख का भेद जानने के लिए हमें अंतर्मन को साधना होगा। लेकिन आज के समय में अंतरंग कुछ रह ही नहीं गया है। मन की भावनाएं, जिन्हें मन की शक्ति बननी चाहिए, अब सार्वजनिक चर्चा का विषय बनती जा रही हैं। इसके दुष्परिणाम भी सामने आ रहे हैं। लोग टूट रहे हैं। हताश, निराश हो रहे हैं। हर कोई अपने दुख का रोना रोने में लगा हुआ है। इससे बचना है तो मन की भावना को आत्मसात् करना आना चाहिए। भावनाओं को किससे और किस स्तर पर बांटना है, यह विवेकशील मनुष्य ही कर सकता है।

याद रखें कि जीवन में अहम् परिवर्तनों को केवल वही मूर्त्त रूप दे सकते है, जो स्वयं जिम्मेदारी लेना जानते हैं। इसमें दूसरों पर निर्भरता कभी उपयोगी नहीं हो सकती। यानी अपने जीवन में बदलाव लाना है तो यह किसी अन्य के माध्यम से नहीं बल्कि अपने प्रयासों से ही संभव है।

9 thoughts on “44. सुख-दुख”

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