53. हो मन का प्रबंधन

श्री गणेशाय नमः

श्री श्याम देवाय नमः

हमारे मन की भावनाएं और विचार हमारे व्यक्तित्व को एक आकार देते हैं। यह बात आधुनिक विज्ञान की ही स्थापना नहीं, बल्कि हमारे वैदिक शास्त्रों द्वारा उद्घाटित सत्य है। मनुष्य अपनी पूरी जिंदगी में कुछ ऐसे काम करता है कि “उसने ऐसा क्यों किया” यह जानने में विज्ञान भी हार मान चुका है। बहुत मुश्किल होता है, यह जानना कि किसी के भीतर क्या चल रहा है? खासतौर पर जब मनुष्य आत्मघात करता है तो पिछे जो लोग रह जाते हैं, वे तरह-तरह की बातें करते हैं, पर रहस्य अपनी जगह बना रहता है।

जिन लोगों ने आत्महत्या से दुनिया छोड़ी, उनके पिछे के हालात पर यदि चिंतन करें तो पाएंगे आपसी संबंधों में खटास, बीमारी, अकेलापन, कारोबार में नुकसान, कर्ज का बोझ, अपमान की चरम सीमा, किसी विशेष परिस्थिति का सामना नहीं कर पाने का भय जैसे अनेकों कारण निकल कर आते हैं। मनोवैज्ञानिक इस पर काम कर रहे हैं। लेकिन अध्यात्म की दृष्टि से देखें तो जिनका जीवन मन से संचालित है, वे लोग आत्महत्या के लिए जल्दी प्रेरित होंगे।

जिंदगी में मनुष्य के भीतर आत्महत्या का इरादा जगा सकते हैं और यदि मन नियंत्रित नहीं है तो वह उस इरादे को प्रेरणा देगा। यदि हम मन को नियंत्रित नहीं कर पाते अर्थात् अपने जीवन में आने वाली परेशानियों का ठीक से प्रबंधन नहीं कर पाते, तो हम इस जीवन रूपी यात्रा से भटक जाते हैं। इस भटकाव के कारण हम अपने हर कर्म से ऊबने लगते हैं।

अगर सुख ही सुख मिलता जाए, तो मन करता है कि थोड़ा दुख कहीं से जुटाओ और वह अपने आप परेशानियों को न्योता देता है। अगर सुख ही सुख मिले तो, फीका-फीका मालुम पड़ने लगता है। आदमी बड़े से बड़े महल में जाए, उससे ऊब जाता है। धन मिले, यश मिले, कीर्ति मिले उससे ऊब जाता है। जब तक कुछ पाने की उसको भूख रहती है तब तक वह प्रयत्न और संघर्ष की लड़ाई लड़ता रहता है। संसार में जितनी चीजें हैं उनको पाने की चेष्टा में कभी नहीं ऊबता, उन्हें पाकर ऊब जाता है।

जब मनपसंद कार्य नहीं होता तो अनिष्ट की आशंका होती है, इस स्थिति से पार पाने के लिए वह जो भी काम करता है, उसमें एक भटकाव आ जाता है, क्योंकि वह निराशा की अवस्था में होता है। उस समय हर कार्य का परिणाम गलत ही होता है। जिसके कारण हमारे मन का प्रबंधन अस्त-व्यस्त हो जाता है। मन का तो काम ही है, बातों को बढ़ा- चढ़ाकर दिखाना। इसलिए जब ऐसी घटनाएं होती हैं, तो मन उसे और डराता है। जिन लोगों की ऐसी वृति हो तो उनको समझाएं कि जीवन मन केंद्रित नहीं, बल्कि मन नियंत्रित है। जब हम मन को नियंत्रित करते हैं, तब शरीर से आगे बढ़कर आत्मा तक पहुंचते हैं और आत्मा एक बात बहुत अच्छे से समझा देती है कि इस जीवन रूपी यात्रा में मन का प्रबंध परम आवश्यक है।

जब हम आत्मा और परमात्मा की बात करते हुए विश्वास की गहराई में जाएंगे तो श्रद्धा मिलेगी। श्रद्धा को थोड़ा और पकड़िए तो पता लगेगा कि आप परमात्मा के भरोसे हैं। अगर उस पर विश्वास नहीं है तो कुछ भी हाथ नहीं लगेगा। हनुमान जी जब औषधि लेकर अयोध्या के ऊपर से गुजर रहे थे, तो भरत जी को लगा कोई राक्षस है और तीर चला दिया, जिससे हनुमान जी मूर्छित होकर गिर गए। भरत जी ने बहुत प्रयास किया कि हनुमान की मूर्छा टूटे,पर नहीं टूटी, तब मन ही मन कहा—”जो मोरे मन बच अरु काया। प्रीति राम पद कमल अमाया।।” यदि मन वचन और कर्म से श्री राम के चरणों में मेरा प्रेम निष्कपट है, तो यह वानर पीड़ा रहित होकर मूर्छा से बाहर आ जाए। ऐसा हो भी गया। बस यह जो सूत्र भरत जी ने हमें दिया, इसे याद रखिए और मन का प्रबंधन करके ही कार्य कीजिए। वैदिक धर्मग्रंथों के प्राचीन ज्ञान के माध्यम से हमें अपने मन के प्रबंधन को सुचारू रूप से करना चाहिये।

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