श्री गणेशाय नमः
श्री श्याम देवाय नमः
दुख की अनुभूति तो अपनी मन: स्थिति पर निर्भर करती है। वह स्थूल न होकर निराकार होते हुए भी अति प्रचंड रूप ले सकती है। सत्य तो यह है कि—टेढ़े- मेढ़े रास्तों पर चलने से ही जीवन के कठिनतम पाठ कंठस्थ हो पाते हैं। जो जीवनयापन में अत्यंत उपयोगी सिद्ध हुआ करते हैं। जिसने इस संघर्ष को चुनौती के रूप में स्वीकारा हो, उसे झेले गए कष्टों की पीड़ा कम होगी। निजी दु:खों के उस पार भी, एक दुनिया नए सिरे से खड़ी की जा सकती है। जीवन की बड़ी से बड़ी त्रासदियों को भी कभी-कभी हमारे एक्शन बौना बना सकते हैं। इतनीे भयानक त्रासदी हो जाने के बाद जीवन कहीं थम सा जाता है, वहीं से एक नई जीवन- रेखा भी शुरू हो सकती है।
शहीद स्क्वाड्रन लीडर समीर अबरोल की पत्नी गरिमा अबरोल ने यही कर दिखाया। उसने अपने आंसू पोंछ डाले। दर्द सीने में जब्त कर लिया और अपने दिल में उमड़ते दुख के बादलों को समेटकर उसी आसमान में उड़ने की तैयारी कर ली है, जिसमें कभी उसका हमसफर उड़ान भरता था। वह असाधारण हौसलों से बनी है, फौलादी इरादों से भरी है। उसने अपनी मन: स्थिति पर दुख को हावी नहीं होने दिया। वह एक मिसाल बन गई, उनके लिए जो अपने दुख का रोना रोते रहते हैं। शिकायतों का अंबार खड़ा कर देना उसका मकसद नहीं है और अपने भाग्य पर आंसू बहाना भी उसे गवारा नहीं है। गरिमा कोई अकेली नहीं है, जिसने अपने दुख की अनुभूति को अपने मानस-पटल पर हावी नहीं होने दिया। ऐसे बहुत सारे इंसान हैं, जो सकारात्मक जीवन जीने में विश्वास करते हैं। उनका मानना है कि— जैसे हम आनंद को सहर्ष स्वीकार कर लेते हैं, उसी तरह पीड़ा को भी अदम्य साहस से भोगना आना चाहिए, वरना उससे पार पाना बेहद कष्टकारी होगा।
यह भ्रांति कि, समस्त दुख बाह्य परिस्थितियों की देन है और उसका निराकरण चारों ओर के प्रभामंडल को बदलने से ही हो सकता है, उपयुक्त नहीं है। यदि ऐसा होता तो समस्त सुख- सुविधाओं से लैस व्यक्ति संसार में सबसे सुखी होता। हमने तो गरीब की झुग्गी- झोपड़ी से फूटतीे किलकारीयों को सुना है। छोटे से बच्चे को सस्ता सा खिलौना पाते ही आनंद-विभोर होते और दूसरी ओर वैभव- सम्पन व्यक्ति को बिलखते देखा है। जीवन में सुख- दुख आते रहते हैं। यह हमारे ऊपर निर्भर करता है कि हम अपने कष्टों के प्रति कितने संवेदनशील हैं। जितने ज्यादा संवेदनशील होंगे, दुख की अनुभूति उतनी ही ज्यादा होती है।
ईश्वर ने जीवन की भिन्न-भिन्न रंगों से अभूतपूर्व रचना की है। मनुष्य कितना भी चाहे कि उसके हिस्से में केवल सुख ही सुख हो, लेकिन संभव नहीं है। जहां सुख की लालसा हो, वहां कष्ट झेलने की क्षमता भी होनी चाहिए। पीड़ा एक सच्चाई है। जब हमारे अंतर्मन में शांति होती है,तो हमें सुख की अनुभूति होती है और जब अशांति होती है, तो दुख की अनुभूति होती है। हमारी हर एक सांस पर नादब्रह्म है। हमारे अलावा भीतर कोई है, जो सांस ले रहा है। जैसे गर्भवती के गर्भ में एक बच्चा सांस ले रहा होता है, वैसे ही हमारे भीतर परमात्मा सांस लेता है। भीतर-बाहर होती सांस पर ध्यान दें तो, उसकी ध्वनि सुनाई देगी और आप शांत हो जाएंगे। जब हमारा मन शांत होता है, तो हम आनंदविभोर होकर नाचने लगते हैं। तब हमारे हौसले इतने बुलंद होते हैं कि हम हर दुख का सामना करने को तैयार रहते हैं। लेकिन हम भीतर, दूसरों के शोर को इकट्ठा कर लेते हैं। विचारों की भीड़, एक-दूसरे पर दोषारोपण, अपनी किस्मत का रोना आदि। मानों हमारे अंतर्मन में विचारों का एक समुद्र हिलोरे मार रहा है। हमारे मन में दुख की अनुभूति इतनी तीव्र होती है कि हमें अपना दुख तो पहाड़ से भी ज्यादा ऊंचा लगने लगता है। जहां सुख का सदैव स्वागत होना सर्वथा निश्चित है, वही दुख और पीड़ा के आने पर अपने भाग्य को धिक्कारना या दूसरों को उसके लिए उत्तरदाई ठहराना, कहां तक तर्कसंगत है?
दुखानुभूति को कम से कम आत्मसात् किया जा सके, यह उसे चुनौती स्वरूप लेने में ही निहित है। यह सही है कि जो व्यक्ति दुख से जूझ रहा है, उसकी पीड़ा तो वही समझ सकता है। उसका विश्लेषण दूसरा नहीं कर सकता। दुख के प्रति सकारात्मक सोच व्यक्ति को जीवन के सहज मार्ग पर चलने में सहयोगी अवश्य हो सकती है। हमें हर हाल में संयम बरतना चाहिए। जब हम अपने दुखों को अच्छे विचारों से जोड़ेंगे, तो पाएंगे कि हमारा रोम-रोम फूलों की तरह महक रहा है। हमें अपने चारों तरफ के वातावरण में आनंद ही आनंद की अनुभूति हो रही है। जब हम अपनी मन स्थिति पर नियंत्रण पा लेते हैं, तो शरीर में जो रासायनिक परिवर्तन होंगे, उससे हमें बड़े से बड़े दुख से लड़ने की शक्ति मिलती है। दुख की अनुभूति को चुनौती मानकर आगे बढ़ने से प्राप्त सफलता फिर एक नई चुनौती को स्वीकारने के लिए तैयार कर देती है।
Jai Jai shri Shyam sunder