63. सफल जीवन

श्री गणेशाय नमः

श्री श्याम देवाय नमः

सफल जीवन की कोई परिभाषा नहीं है। कैसा जीवन जिएं, जिससे हमें आनंद की प्राप्ति हो। इसके संबंध में सभी के अपने-अपने मत हैं। कोई यह नहीं कह सकता कि जीवन के संबंध में उसका मत ही सबसे अच्छा है, सर्वश्रेष्ठ है। प्रत्येक व्यक्ति का, जीवन जीने का नजरिया भिन्न-भिन्न होता है। सभी अपने अनुसार जीवन जीना चाहते हैं। किसी का जीवन खुशहाल और आनंदमय होता है, तो किसी का दुखदाई। कोई मनुष्य देशकाल, समय तथा परिस्थितियों के अनुसार ही अपने जीवन को ढालने का प्रयास करता है और उसी में खुश रहता है। उसे ऐसे ही जीवन में खुशी मिलती है और आनंद का अनुभव प्राप्त करता है।

विषम परिस्थितियों में भी वह लहरों के विपरीत बहना उचित मानता है। उदाहरण स्वरूप हम नदी को नाव में बैठकर पार कर रहे हैं और अचानक दुर्घटना हो जाती है। तब नदी को किसी भी तरह पार करने में ही बुद्धिमता कही जा सकती है । ऐसे विरले ही होते हैं जो विषम परिस्थितियों में नदी की विपरीत धाराओं को तैर कर पार करते हैं, अर्थात् संघर्ष कर नया रास्ता अख्तियार करते हैं। ऐसे मनुष्य संघर्ष का रास्ता अपनाते हुए, अपने जीवन को सफल बनाते हैं। कोई अत्यधिक अनुशासन और अधिक तप वाले जीवन को अच्छा कहता है, तो कोई “खाओ पियो मौज उड़ाओ” वाली प्रवृत्ति वाले जीवन को सफल जीवन की श्रेणी में रखता है। वैसे देखा जाए तो एक संतुलित और आत्मानुशासन वाला जीवन ही सफल जीवन कहा जाना चाहिए।

एक बार गौतम बुद्ध से राजकुमार श्रोण ने दीक्षा ली और अत्यधिक कठोर अनुशासन और तप का जीवन जीने लगा। इससे उसका शरीर सूख गया। शरीर के नाम पर हड्डियों का ढांचा ही शेष बचा था। बुद्ध को लगा श्रोण की यह हालत उनकी कठोर तपस्या के कारण हुई है। उन्होंने श्रोण से कहा— मैंने सुना है तुम सितार बहुत अच्छा बजाते हो। क्या मुझे सुना सकते हो?

श्रोण ने कहा— आप अचानक क्यों सितार सुनना चाहते हैं?

बुद्ध ने कहा— न सिर्फ सुनना चाहता हूं, बल्कि सितार के बारे में जानकारी भी प्राप्त करना चाहता हूं। मैंने सुना है कि यदि सितार के तार बहुत ढीले हों या बहुत कसे हुए हों तो उससे संगीत पैदा नहीं होता।

श्रोण ने कहा— आपने बिल्कुल ठीक सुना है। यदि तार अत्यधिक कसे हुए होंगे तो टूट जाएंगे और यदि ढीले होंगे तो स्वर बिगड़ जाएगा।

बुद्ध मुस्कुराए और बोले— जो सितार के तार का नियम है, वही जीवन का भी नियम है। मध्य में रहो। न अधिक भोग की अति करो, न तप की।

महात्मा बुद्ध की यह बात उत्तम है कि हमें सफल जीवन जीने के लिए, जीवन में संतुलन स्थापित करना चाहिए। मानव रूप में यह हमें अनमोल जीवन मिला है। इस जीवन रूपी पथ के हम यात्री हैं। हमारी यात्रा तभी सफल और मंजिल तक पहुंचने में कामयाब होगी, जब हम सावधानी से यात्रा करेंगे। आपने अक्सर देखा होगा कि सड़क के किनारे बोर्ड पर जगह-जगह लिखा होता है कि— सावधानी हटी, दुर्घटना घटी। यह सावधानी अत्यंत आवश्यक है। यह तभी होगा, जब हमारे जीवन में संतुलन स्थापित होगा और यह संतुलन जीवन संबंधी नियमों का पालन करने से ही आएगा।

वेदों में कहा गया है कि जीवन का निर्माण और विनाश दोनों हमारे हाथों में है। निर्माण करने का बेहतर तरीका क्या हो? इसे जो जानता है, उसका जीवन दूसरों के लिए प्रेरक बन जाता है। जीवन रूपी सितार से मधुर संगीत तभी बजता है, जब जीवन रूपी सितार के तार न कसे हों और न ढीले हों। जीवन में प्रत्येक वस्तु का संतुलन हों। क्षमता से अधिक श्रम करना या आलस्य में पड़े रह कर कोई भी कार्य न करना दोनों ठीक नहीं हैं। इसके लिए हमें अध्यात्म को अपने जीवन में अपनाना चाहिए। क्योंकि अध्यात्म जीवन को संतुलित करता है। ऐसे जीवन का निर्माण करता है जो स्वयं के लिए सर्वोत्तम होता है और दूसरों के लिए प्रेरणादायक। जीवन रूपी सितार से निकले मधुर स्वर स्वयं को प्रिय लगते हैं और दूसरों को भी आकर्षित करते हैं। ऐसे जीवन के प्रति लोगों में आकर्षण पैदा होता है और वह हमारे जैसे सफल जीवन की कामना करने लगते हैं।

संपूर्ण ब्रह्मांड नियमों से संचालित होता है। नियमों का पालन करना बेहद आवश्यक है। हमें स्वयं व्यवस्थित रहकर अपने कर्म करते रहना चाहिए। यही सबसे बड़ा नियम है। यही आध्यात्मिक जीवन है। जबरदस्ती भूखे- प्यासे रहना और शरीर को जर्जर करना आध्यात्मिक जीवन नहीं हो सकता। यदि जीवन रूपी यात्रा में हम विपरीत परिस्थितियों में घिर जाएं, तो उस समय थोड़ा ठहर जाएं, शांत मन से रास्ता खोजने की कोशिश करेंगे तो कोई न कोई रास्ता अवश्य मिलेगा। यदि कोई रास्ता न मिले तो एक बार नदी की विपरीत धारा से संघर्ष कर धैर्य, विवेक और साहस से तैर जाना चाहिए। नया जीवन बनाना, यही जीवन को, श्रेष्ठतम बनाने की सार्थक कला होगी। यही कला सीख कर जीवन सफल बन सकता है।

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