66. वास्तविक ज्ञान

श्री गणेशाय नमः

श्री श्याम देवाय नमः

हमें बिल्कुल भी शंका नहीं होनी चाहिए कि इस संसार में रहते हुए हमारे जीवन में दुखों की भरमार है। लेकिन यह भी सच्चाई है कि 25 फिसदी दुख बाहरी कारणों से आते हैं जैसे— बाढ़, अकाल, आंधी- तूफान, महामारी आदि के रूप में। ये किसी एक को लक्ष्य करके नहीं आते बल्कि सभी जीवों के लिए आते हैं। इसके अलावा 75 फ़ीसदी दुखों का निर्माण हमारे अंतर्मन से ही होता है। यह सारे दुख हमारे मन में ही जन्म लेते हैं, वहीं उनका पोषण होता है और फिर भयंकर रूप धारण कर लेते हैं। इन दुखों को मिटाने के लिए हम अनेक प्रकार के प्रयास करते हैं। धन का संग्रह करते हैं और यही सोचते हैं कि शायद अब दुख कम हो जाएंगे। लेकिन दुख कम होने का नाम ही नहीं लेते।

हम यह भी चाहते हैं कि परिस्थितियां हमारे अनुकूल रहे, परंतु धन का संग्रह करने से, परिस्थितियां बदलने से भी हम दुख से मुक्ति प्राप्त नहीं कर पाते। क्योंकि न तो हम अपेक्षित धन का संग्रह कर पाते हैं और न ही परिस्थितियों को मनचाहा बदल सकते हैं। दरअसल इन दुखों से मुक्त रहने के लिए हमें ऐसा ज्ञान चाहिए, जो तमाम संग्रह और भोगों के बगैर और किसी भी परिस्थिति में हमें आनंद दे सके। जब तक हम यह समझते रहेंगे कि हमारे पास ज्ञान का कोई अभाव नहीं है, तब तक इसे प्राप्त करने की प्यास हमारे आंतरिक जगत् में जागृत ही नहीं होगी। यह तो केवल तभी जागृत होगी, जब हम यह अनुभव करेंगे कि हम में तो केवल अज्ञान ही समाया हुआ है। अज्ञान का भाव ही ज्ञान प्राप्त करने की प्यास रूपी ललक को जागृत करता है और हम जैसे-जैसे स्मृतियों को पकड़ते जाएंगे, वैसे- वैसे ज्ञान हमसे दूर होता जाएगा। जैसे— किसी ने तैरना सीखना हो तो वह शास्त्र पढ़कर या व्याख्यान सुनकर कुशल धावक नहीं बन सकता उसके लिए उसे तैरने की ट्रेनिंग लेनी ही पड़ेगी।

मन- मस्तिष्क के आंतरिक द्वार तभी खुलते हैं, जब इसके लिए एक प्रकार की विशेष प्यास की ललक जागृत होती है। जब कोई व्यक्ति बीमार हो जाता है, तब उसके अंदर से उस बीमारी को दूर करने की एक जबरदस्त प्यास जागृत होती है, जिसके लिए वह हर प्रकार से प्रयास करता है और जीवन में सुखद अनुभूतियों को प्राप्त करता है, जो केवल स्वयं के ज्ञान के द्वारों के खुलने पर होती हैं।यह ज्ञान बाहर की वस्तुओं का नहीं होना चाहिए, बल्कि अपना स्वयं का होना चाहिए अर्थात् आत्मा का ज्ञान होना चाहिए। अपने स्वरूप के बारे में जो ज्ञान होता है, वह किसी भी प्रयोगशाला का नहीं होता, बल्कि पूर्णतया स्थिर और अचल होता है। उसी में निष्ठा रखकर हम दुनिया में जो भी करेंगे, उसमें संदेह नहीं रहेगा, क्योंकि तब हम सर्वत्र और सभी परिस्थितियों में एक जैसे होंगे। हमारे मन में कोई भी भ्रम या दुविधा की स्थिति उत्पन्न नहीं होगी। आत्मस्वरूप के ज्ञान के बाद हम जागृत और सुषुप्ति की अवस्था में एक जैसे रहेंगे। भोग-योग, संयोग- वियोग में भी समान रहेंगे। हमारे जीवन में जीवन- मरण का भय नहीं रहेगा और हमारा ज्ञान स्थिर हो जाएगा।

हमें यह समझना चाहिए कि हम जो भी बनाते हैं वह एक दिन अवश्य बिगड़ता है। क्योंकि परिवर्तन प्रकृति का नियम है। थोड़े दिनों के लिए सुख मिलता है, फिर दुख आ जाता है। क्योंकि सुख- दुख जीवन के वृक्ष पर लगने वाले सुंदर फूल हैं, जो फूल लगने पर भी फूलों की तरह खिल न सकें, तो यह पीड़ा दायक होता है। लेकिन जब इसी जीवन रूपी वृक्ष को दैविय हवा, खाद और पानी मिलेंगे तो उसी पर सुख-दुख के फूल खिलेंगे। आकर्षक फूलों को पाने की चाहत में हमें जाने अनजाने कांटो की चुभन भी मिलनी स्वभाविक है। जब हमें लाभ प्राप्त हो रहा होता है अथवा होने की संभावना होती है तो ऐसी स्थिति में सब सुखद लगता है, किंतु जब हमें हानि होती है या उसकी संभावनाएं बनती है, तो वही वस्तु हमें पीड़ा देने लगती है। इस भौतिक संसार में निवास करने वाले मानव बड़े विचित्र हैं, वे उसी से अनुराग एवं प्रेम का जुड़ाव रखते हैं, जहां से कुछ प्राप्त हो रहा होता है अथवा कुछ लाभ प्राप्त करने की संभावनाएं बनी रहती हैं। अन्यथा अपने आत्मीय संबंधों की भी उपेक्षा कर देने में जरा भी पीछे नहीं हटते।

निस्वार्थ प्रेम एवं अनुकंपा दोनों ही विरल तथा देवीय हैं। स्वार्थ में दुख, पीड़ा एवं पश्चाताप प्रतिक्षण मौजूद रहते हैं। जबकि निस्वार्थ के मूल में सुख, आनंद, शांति, करुणा, दया की भावना छिपी रहती है। जब तक हमें वास्तविक ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती, तब तक हम निस्वार्थ भावना नहीं रख सकते। स्वार्थ के वशीभूत होकर ही मनुष्य हमेशा दुख का भागी बना रहता है। एक भक्त का मन हमेशा भगवान में लीन रहता है, इसलिए उसके मन में कभी भी दुख का निर्माण नहीं हो सकता। किंतु जिनका मन स्वार्थ में लिप्त होता है, वहां दुख के सिवाय और क्या मिल सकता है? इसी कारण मनुष्य दुख का भागी बनता है। सुख-दुख को समान भाव से देखने और इन्हें ईश्वर का प्रसाद मानकर स्वीकार करने से हम दुख से परे हो जाएंगे। काल का पहिया अपनी गति से घूमता रहता है। इसमें कुछ भी स्थाई नहीं है। सुख नहीं रहा तो दुख क्यों रहेगा? दुख बाहरी है। दुख बाहर ही रहता है। हम ही हैं, जो उसे अंदर बुलाते हैं। सुख आंतरिक है। अंतर में ही निवास करता है। उसे दूर भी हम ही करते हैं। ज्ञान के अभाव में ही हम आंतरिक सुख को बाहर निकाल देते हैं। जिससे हम अज्ञान के रास्ते पर चल पड़ते हैं। अज्ञान यदि हमारा स्वयं का है, तो इसे हमारा ही ज्ञान मिटा सकता है, दूसरे का कदापि नहीं। अज्ञान से अहंकार के सिवाय और कुछ भी हासिल नहीं होगा, जो मानसिक तनाव का कारण बनेगा।

वास्तविक ज्ञान न तो कभी अहंकार को बढ़ाता है और न ही तनाव का कारण बनता है। जिसने भी अज्ञान को तिंलाजलि देकर ज्ञान को अपने जीवन में धारण कर लिया उसका जीवन वृक्ष के समान, स्वयं तथा संसार की दृष्टि में हरा- भरा और पोषण युक्त प्रतीत होता है। जिसे ईश्वर रूपी माली की भरपूर स्नेह-संपदा के सुख का संयोग प्राप्त होता है। उसे नष्ट करने वालों के उपक्रम धरें के धरें रह जाते हैं। अपनी चतुराई और अहंकार के वशीभूत होकर मालियों द्वारा लगाए गए वृक्ष समय से पूर्व ही अपनी जीवन- शक्ति को खो देने के लिए विवश हो जाते हैं। इसलिए अपने स्वरूप यानी आत्मा का ज्ञान प्राप्त करने के लिए, हमें ईश्वर का स्मरण करना चाहिए। ध्यान, तप, साधना द्वारा हमें आत्मज्ञान प्राप्त करने में सहयोग मिलता है। जिससे हमें ज्ञान की प्राप्ति होती है। इसलिए हम में से प्रत्येक को, स्वयं के ज्ञान को जागृत करने का भरसक प्रयास करना चाहिए।

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