77. मकर सक्रांति

श्री गणेशाय नमः

श्री श्याम देवाय नमः

सक्रांति का शाब्दिक अर्थ है— एक दूसरे से मिलना या एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना। सूर्य जब एक राशि को छोड़कर दूसरी राशि में प्रवेश करता है, तब उसे सक्रांति कहते हैं। सूर्य जिस राशि में प्रवेश करता है, उसी के नाम से सक्रांति मानी जाती है। पौष मास में जैसे ही सूर्य सर्द ऋतु की जड़ता को समाप्त करके मकर राशि में प्रविष्ट होता है, तो मकर सक्रांति कहा जाता है। इस पर्व में सूर्य देव की पूजा की जाती है। यह पर्व हमें भगवान भास्कर के गुणों यानी ऊर्जा, उष्मा व प्रकाश को अपने अंदर समाहित करने की प्रेरणा देता है। इसके साथ- साथ यह दूसरों के जीवन में भी प्रकाश फैलाने और परस्पर संबंधों में नई ऊर्जा का संचार करने की प्रेरणा का भी वाहक बनता है।

वेदों में भी सूर्य को विशेष महत्व दिया गया है। सूर्य देव ज्योतिष और प्रकृति दोनों के आधार है। ज्योतिष के अनुसार प्रत्येक वर्ष उत्तरायण और दक्षिणायण दो भागों में बराबर-बराबर बंटा हुआ होता है। जब सूर्य की गति दक्षिण से उत्तर होती है, तो उसे उत्तरायण एवं जब उत्तर से दक्षिण होती है तो उसे दक्षिणायण कहा जाता है। अक्सर 14 जनवरी को ही सूर्य देव प्रतिवर्ष अपनी कक्षा में परिवर्तन कर दक्षिणायण से उत्तरायण होकर मकर राशि में प्रवेश करता है इसलिए मकर सक्रांति इसी दिन मनाई जाती है।

हिंदू धर्म में अधिकतर देवताओं का पदार्पण भूमध्य रेखा के उत्तर में यानी उतरी गोलार्ध में होने की मान्यता है। इसलिए सूर्य की उत्तरायण स्थिति को शुभ माना जाता है। मकर संक्रांति के दिन सूर्य की कक्षा में हुए परिवर्तन को अंधकार से प्रकाश की ओर हुआ परिवर्तन माना जाता है। क्योंकि सूर्य देव ऊर्जा के स्रोत हैं। शास्त्रों के अनुसार दक्षिणायण को देवताओं की रात्रि तथा उत्तरायण को देवताओं का दिन कहा जाता है।

श्रीमद्भागवद् गीता के आठवें अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने भी सूर्य के उत्तरायण होने का महत्व स्पष्ट किया है। उन्होंने कहा है—
हे भरत श्रेष्ठ! ऐसे लोग जिन्हें ब्रह्म का बोध हो गया हो, अग्निमय ज्योति देवता के प्रभाव से जब छह माह सूर्य उत्तरायण होता है, दिन के प्रकाश में अपना शरीर त्यागते हैं, उन्हें पुनः जन्म नहीं लेना पड़ता है। जो योगी रात्रि के अंधेरे में कृष्ण पक्ष में दक्षिणायण में अपने शरीर का त्याग करते हैं, वे चंद्रलोक में जाकर पुनः जन्म लेते हैं।

यहां प्रकाश एवं अंधकार से तात्पर्य सूर्य के उत्तरायण एवं दक्षिणायण स्थिति से ही है। महाभारत की कथा के अनुसार सूर्य के उत्तरायण के महत्व से भीष्म पितामह भली भांति परिचित थे। इसीलिए वे बाणों की शरशैया पर भयंकर वेदना में होते हुए भी सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतीक्षा कर रहे थे। एक लंबे अंतराल तक उन्होंने भयंकर पीड़ा सही और अपने प्राण तब तक नहीं त्यागे, जब तक सूर्य की उत्तरायण स्थिति नहीं आ गई। गंगा को धरती पर लाने वाले महाराज भगीरथ ने अपने पूर्वजों का तर्पण मकर सक्रांति के दिन ही किया था। ऐसी भी मान्यता है कि उनका तर्पण स्वीकार करने के बाद ही गंगा समुद्र में जाकर मिल गई थी।
मकर सक्रांति के दिन ही भगवान विष्णु ने असुरों का अंत करके युद्ध समाप्ति की घोषणा की थी। उन्होंने सभी असुरों के सिरों को मंदार पर्वत में दबा दिया था।

मकर सक्रांति का पर्व भारत के विभिन्न प्रांतों में सांस्कृतिक महोत्सव के रूप में भी मनाया जाता है। जहां पर कुछ प्रांतों में पतंग उड़ाने की परंपरा है, तो कहीं पर नदियों एवं गंगा के किनारे बसे गांवों व नगरों में मेलों का आयोजन होता है। जिसमें बंगाल में गंगासागर का मेला प्रसिद्ध है। दक्षिण बिहार में मदार क्षेत्र में भी एक मेला लगता है। महाराष्ट्र और गुजरात में मकर संक्रांति में अनेक प्रतियोगिताओं का आयोजन होता है। सिंधी समाज इस पर्व को लाल लोही के रूप में मनाता है। तमिलनाडु में मकर संक्रांति पोंगल के रूप में मनाई जाती है। वहीं हरियाणा, उत्तर प्रदेश, दिल्ली और राजस्थान के कुछ क्षेत्रों में सुबह स्नान करने के बाद भगवान सूर्य को अर्ध्य दिया जाता है और अपना परंपरागत व्यंजन हलवा बनाकर भोग लगाया जाता है। मकर संक्रांति के दिन सभी के घरों के बाहर अग्नि प्रज्वलित की जाती है और उसमें तिल, चावल की हवि डाली जाती है। सायंकाल के समय नवविवाहित औरतें अपने घर परिवार और रिश्तेदारों को कपड़े और मिठाई उपहार के रूप में देती हैं और उनसे आशीर्वाद प्राप्त करती हैं। इस परंपरा को “मनाना” कहा जाता है। घर के बड़े सदस्य कहीं छिप कर बैठ जाते हैं और फिर औरतें झुंड के रूप में एकत्रित होकर मंगलाचार गाते हुए उनको ढूंढ निकालती हैं और फिर उनको उपहार भेंट करती हैं। यह हंसी-मजाक का कार्यक्रम काफी समय तक चलता रहता है। रूठने और मनाने की यह परंपरा सदियों से चली आ रही है।

मकर संक्रांति के दिन सूर्य देव धनु राशि से निकलकर मकर राशि में प्रवेश करते हैं और मकर राशि के स्वामी शनि देव हैं, जो सूर्य देव के पुत्र होते हुए भी उनसे शत्रु भाव रखते हैं। इसलिए शनिदेव के घर में सूर्य की उपस्थिति के दौरान शनिदेव उन्हें कष्ट न दें इसलिए इस दिन तिल का दान और सेवन किया जाता है। इस दिन चावल और काली उड़द की दाल या मूंग की दाल मिश्रित खिचड़ी बनाकर खाने व दान करने का भी विधान है।

वैज्ञानिक दृष्टि से भी यह पर्व अनेक प्रकार की व्याधियों से मुक्त होने का दिन है। क्योंकि शीत ऋतु में अनेक उष्ण भोज्य पदार्थों का सेवन किया जाता है। यह पर्व हमारी सनातन संस्कृति का बोध कराता है। एक ही घाट, एक ही नदी, तालाब में एक साथ स्नान करने की परंपरा हमें अपनी पुरातन संस्कृति से अवगत करवाती है। मकर सक्रांति प्रगति,ओजस्विता, सामाजिक समरसता और सामाजिक एकता का पर्व है। यह संपूर्ण भारत में चाहे किसी भी नाम से मनाया जाए, लेकिन सच तो यह है कि यह जीवन में चेतना, उत्साह एवं उमंग का संचार करता है। इस दिन भगवान सूर्य की पूजा गायत्री मंत्र के साथ करने का विधान है। जनेऊ धारण करने और दीक्षा लेने के लिए भी यह दिन पवित्र माना जाता है। इस दिन किये गए दान का फल 100 गुना ज्यादा मिलता है और जो इस दिन शरीर को त्याग देता है, वह जीवन- मरण के चक्कर से मुक्त होकर मोक्ष को प्राप्त करता है।

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