80. बाल संस्कार

श्री गणेशाय नमः

श्री श्याम देवाय नमः

अगर हम चाहते हैं कि हमारे बच्चे संस्कारी बनें, तो बचपन में ही हमें उनमें संस्कार डालने होंगें, तभी वे बड़े होकर एक संस्कारी और श्रेष्ठ व्यक्तित्व को प्राप्त करेंगे। क्योंकि संस्कार मनुष्य के आभूषण होते हैं। यह मनुष्य को गुणवान एवं लोकप्रिय बनाते हैं। संस्कारी व्यक्ति की सभी प्रशंसा करते हैं और वह समाज में लोकप्रियता हासिल करता है।अगर हमारे समाज में ज्यादातर मनुष्य संस्कारी होंगे तो इससे हमारा समाज, प्रांत और देश, सभ्य और सुव्यवस्थित होगा। एक सभ्य समाज ही उन्नति के पथ पर अग्रसर होता है।

यदि बाल्यावस्था से ही बच्चों को संस्कारित किया जाए तो उनमें वे स्थाई रूप से वास करते हैं। क्योंकि बचपन कच्ची मिट्टी की तरह होता है। हम उन्हें जैसा आकार देना चाहते हैं, वैसा दे सकते हैं। जिस तरह कच्ची मिट्टी से एक सुंदर घड़े या सुराही का निर्माण होता है। तत्पश्चात् उस घड़े या सुराही में रंग भर कर उसे आकर्षक बनाया जाता है। ठीक वैसे ही हम बच्चों के साथ कर सकते हैं। क्योंकि बाल्यावस्था के संस्कार स्थायी होते हैं। अगर इस अवस्था में श्रेष्ठ संस्कारों का पीयूषपान कर लिया जाए तो जीवन के सफल होने का मार्ग स्वत: खुल जाता है।

व्यक्ति के अंदर एक क्रमिक प्रक्रिया द्वारा ही संस्कारों का समावेश होता है। अगर हम उसे श्रेष्ठ संस्कारों से परिष्कृत करें तो भविष्य श्रेष्ठता को प्राप्त होगा। हमें बचपन में ही बच्चों के अंदर संवेदना का भाव उत्पन्न करना चाहिए। जिससे वे संवेदनशील बन सकें। जब कभी कोई भी व्यक्ति किसी अन्य का दुख देखकर उसके सुख- दुख का अनुभव, उसके बराबर ही करने लगता है, तब समझा जाता है कि ऐसा व्यक्ति संवेदनशील है। उसे केवल अपने सुख-दुख का ध्यान नहीं है, बल्कि वह दूसरों के सुख- दुख का भागीदार भी बनता है, इतना ही नहीं, वह बड़ा होकर न केवल मनुष्य के सुख-दुख को देखकर दुखी और सुखी होता है बल्कि वह मानव, पशु- पक्षी, कीट-पतंग, जलचर और नभचरों की पीड़ा को भी देख कर संवेदना के भाव से भर उठता है। सनातन परंपरा इसीलिए विश्व की परंपराओं में श्रेष्ठ रूप से स्वीकार की गई है, क्योंकि इसी परंपरा में अतिथि, गाय, कुत्ता और कौए को रोटी देने के साथ-साथ सर्प को दूध पिलाने, मछली और चींटी को आटा खिलाने की परंपरा आदि काल से प्रचलित रही है।

सामाजिक समरसता एवं सहिष्णुता का अनुसरण हमें स्वयं भी करना चाहिए और बच्चों को भी उसका अनुसरण करने के लिए प्रेरित करना चाहिए। “वसुधैव कुटुंबकम्” का जो मंत्र हमारी संस्कृति ने दिया है, वह इसी का एक हिस्सा है। सबसे पहले इसे स्वयं पर लागू करना चाहिए, जिससे हम अपने बच्चों के अंदर भी संस्कार डाल सकें। हमारे शरीर को ज्ञानेंद्रियां संचालित करती हैं। हम कुछ देखते हैं और मन उसे अपराध कहता है, तो हमें अपनी आंखों के प्रति सहिष्णु बनाना चाहिए और तत्काल उधर से दृष्टि हटा लेनी चाहिए, क्योंकि दूसरा कोई भले न जान पाए कि हम क्या गलत कर रहे हैं पर हमारा मन प्रत्येक कार्य के गलत सही के बारे में बताता रहता है। इसकी सीधी- सी पहचान है कि जो काम हम खुले आम नहीं बल्कि चोरी से करते हैं वह गलत है। गलत न होता तो सार्वजनिक रूप से हम उसे करते। जब हम स्वयं मन बुद्धि से एक सूत्र में नहीं रहेंगे तो समाज को एक सूत्र में नहीं रख सकते। क्योंकि जब स्वयं हमारे कर्म और चिंतन में विरोधाभास रहेगा तो वह हमारी कार्यपद्धती में भी उतर आएगा।

समाज को उत्तम और आदर्शवादी बनाने के लिए आलीशान मकान और भारी-भरकम भौतिक साधन नहीं, बल्कि सुसंस्कारित व्यक्ति का होना जरूरी है और यह तभी संभव है जब हम अपने बच्चों में संस्कार डालें। हमें यह सोचना होगा कि जो हमारे लिए ठीक नहीं है, वह दूसरों के लिए भी ठीक नहीं हो सकता। इसी सोच को मजबूती से पकड़ने की जरूरत है। येन केन प्रकारेण उपलब्धि अनेक विकृतियों को जन्म देती है और तब समाज में विषमता, विषाक्तता और नफरत का माहौल बनने लगता है। अपने लाभ के लिए दूसरों का अहित करना दानवीय प्रवृत्ति है। जो व्यक्ति समाज के लिए सहिष्णु नहीं होता, एक दिन ऐसा आ जाता है कि वह अपने परिवार के प्रति भी क्रूर हो जाता है और फिर उसका निजी जीवन कष्टदायी हो जाता है।

हमें यह स्वीकार करते हुए हिचक नहीं होनी चाहिए कि बाल संस्कारों का पोषण हमारे व्यवहार से होता है। हम जैसा व्यवहार बच्चों के साथ करते हैं, वे वैसा ही सीखते हैं। बच्चों में सच बोलने का संस्कार हमारे सच बोलने से ही आता है। माता-पिता और परिवार के सदस्यों के आचरण का बच्चों पर गहरा प्रभाव पड़ता है। ऐसे में आवश्यक है कि हम बच्चों के समक्ष अच्छा व्यवहार करें। संस्कारों के बीजारोपण के लिए श्रेष्ठ साहित्य की भूमिका भी अहम् रोल अदा करती है। नैतिक शिक्षा बच्चों के जीवन की दिशा बदल देती है। ज्ञानवर्धक कहानियों का बच्चों के जीवन पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है। यह कहानियां बच्चों के मन में दया, करुणा, साहस, शौर्य, पराक्रम, सत्यवादिता, जिज्ञासा, सरलता और इमानदारी जैसे गुणों का अंकुरण करने में सहायक होती हैं। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि समाज निर्माण और राष्ट्र निर्माण, व्यक्ति निर्माण से ही संभव है और श्रेष्ठ व्यक्ति निर्माण बाल संस्कारों से ही होता है।

5 thoughts on “80. बाल संस्कार”

Leave a Comment

Shopping Cart
%d bloggers like this: