85. अज्ञानता रूपी अहंकार

श्री गणेशाय नमः

श्री श्याम देवाय नमः

अज्ञानता रूपी अहंकार एवं अंधकार में डूबा मनुष्य हर अच्छे काम का श्रेय स्वयं को देने का भ्रम करता रहता है। लेकिन इस रहस्य से प्रायः अनभिज्ञ रहता है कि यदि किसी भी अच्छे, उत्तम एवं सफल काम का मूल केवल वही है, तो फिर वह कार्य उसके जीवन की इतनी लंबी अवधि बीतने से पहले क्यों नहीं संपन्न हुआ? प्रत्येक इंसान केवल यही समझता है कि जो वह कर रहा है वह सबसे अच्छा है। वह जैसी जिंदगी जी रहा है, उससे अच्छा कुछ नहीं हो सकता।

कई बार प्रभु भक्ति करने वाले लोगों के अंदर भी अहंकार आ जाता है, वह सोचने लगता है कि मैंने तो बहुत दान- पुण्य किया है, मैं बहुत से तीर्थ स्थानों पर गया हूं। ऐसे लोगों को अपने आप पर बड़ा घमंड होता है। उनको लगता है कि उन्हें जीवन में जो कुछ मिल रहा है वह उनके स्वयं के कारण मिल रहा है। इंसान अहंकार में सच्चाई से बहुत दूर चला जाता है। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष मानव जीवन के चार लक्ष्य हैं। इन लक्ष्यों को प्राप्त करके ही ज्ञान प्राप्त कर सकता है।

अहंकार मनुष्य का सबसे बड़ा दुश्मन है। जब मनुष्य के विनाश का समय आता है, तो भगवान सबसे पहले उसके विवेक का हरण करता है। यदि वह इस अहंकार से छुटकारा पा लें और विवेकशीलता अपना सके, तो इतने भर से ही स्वयं पार उतरने और अनेकों को पार उतारने में सक्षम हो सकता है। इसके लिए विद्वान या पहलवान होना आवश्यक नहीं है। कबीर, दादू, रैदास, मीरा, शबरी आदि ने विद्वता या सम्पन्नता के आधार पर वह श्रेय प्राप्त नहीं किया था। मनुष्य के पास शरीर, मन और अंतःकरण ये तीन ऐसी खदानें हैं, जिनमें से इच्छानुसार मणिमुक्तक खोदकर निकाले जा सकते हैं।

मनुष्य ईश्वर से सदैव याचक बन कर कुछ न कुछ मांगता रहता है, उन्हीं की अनुकंपा से कुछ पाकर इतराता है और अपनी अज्ञानतावश स्वयं को कर्ता मानता है। जब-जब कर्ता भाव से चालाकी वश मनुष्य अपने लक्ष्य को छल- बल से प्राप्त करना चाहता है, तो लक्ष्य उससे उतना ही दूर होता चला जाता है और परेशानियां मुफ्त में उसकी चालाकियों का परीक्षण करने के लिए तैयार रहती हैं। बिना ईश्वर कृपा के न तो उसे अच्छा परिवेश मिल सकता है और न ही कुछ अच्छा करने की प्रेरणा।

हम अज्ञानता के वशीभूत होकर भांति-भांति के अभिनयों एवं भाव- भंगिमाओं द्वारा अपने जीवनयापन के तरीके ढूंढते रहते हैं। लेकिन अहंकारी मनुष्य जीवनपर्यंत विगत कर्म का लेखा-जोखा जो उसे, उस कर्म के तहत करना होता है, वही करता रहता है। प्रभुकृपा का याचक व्यक्ति कोई भी कार्य कर्ता भाव से नहीं करता बल्कि याचना के उपरांत मिले किसी भी प्रकार के कार्य को प्रभु निर्णय मानकर स्वीकार करता है और अपने कार्य को निष्काम भाव से करते हुए अपने अभीष्ट की ओर अग्रसर होता चला जाता है।

प्रभु द्वारा निर्धारित किए गए सुनिश्चित मार्ग में बाधाएं अथवा कष्ट झांकने का भी साहस नहीं जुटा पाते। लेकिन अज्ञानता के अहंकार में डूबे हुए जिस किसी भी व्यक्ति ने अपना चातुर्य-प्रदर्शन करने की कुचेष्टा की है, वह महज लक्ष्य से ही नहीं, अपितु अपने इस दुर्लभ जीवन से भी हाथ धो बैठा। प्रभु कृपा के प्रसाद से कोई भी रंक, राजा बनने का गौरव हासिल कर सकता है, लेकिन अपने आपको ईश्वर मानने वाले अहंकारी मनुष्य का वही हाल होता है, जो रावण का हुआ था। रावण एक बहुत बड़ा विद्वान और पंडित था, लेकिन अज्ञानतावश अपने को ईश्वर मानने लगा और उसका यही अहंकार उसके विनाश का कारण बना।

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