90. संबंधों का मायाजाल

श्री गणेशाय नमः

श्री श्याम देवाय नमः

परमात्मा का संबंध हर जीव से, बच्चे की तरह है। जिस प्रकार मां को अपने हर बच्चे की भूख-प्यास, दुख-सुख, का अहसास हो जाता है, उसी प्रकार परमात्मा को भी अपने हर जीव का पता रहता है। क्योंकि परमात्मा ही हर जीव को जन्म देता है, उसकी हर इच्छा का ख्याल रखता है। उसके पोषण की व्यवस्था करता है और नियत अवधि के बाद उसका जन्म हर लेता है। इस दृष्टि से एक ही शाश्वत संबंध है जो परमात्मा और जीव के मध्य स्थापित होता है। परमात्मा न चाहे तो जीव का जन्म ही न हो। जीव के जन्म की जिस शारीरिक क्रिया की बात की जाती है, उसमें भी परमात्मा की इच्छा निहित है।

इस इच्छा के लिए परमात्मा से दिन-रात प्रार्थना करने वालों की कमी नहीं है। यानि कि परमात्मा की इच्छा से ही जीव जन्म लेता है और उसकी इच्छा से ही समय आने पर मृत्यु को प्राप्त करता है। इस संसार में जैसे ही उसकी जीवन रुपी यात्रा का समय समाप्त होता है, वैसे ही परमात्मा कोई न कोई जरिया बनाकर उसके प्राण हर लेता है। क्योंकि समय प्राप्त न होने से पहले जीव, सैकड़ों बाण लगने पर भी नहीं मरता और समय के आ जाने पर कुश की नोंक लग जाने से भी वह जीवित नहीं रहता। जीव की मृत्यु वहां होती है, जहां उसका स्थान निश्चित होता है। वह उस स्थान पर किसी न किसी रूप से पहुंच जाता है।

एक समय की बात है—यमराज की सभा का आयोजन था। यमराज सभा-स्थल की तरफ जा रहे थे। उसी समय सभा-स्थल के मुख्य द्वार पर एक कबूतर बैठा हुआ था। उस पर यमराज की दृष्टि पड़ी। यमराज उसको देखकर मुस्कुराते हुए द्वार से अंदर चले गए। उनकी मुस्कान को देखकर नारद जी ने उनसे पूछा— आपके मुस्कुराने का क्या कारण है? इस पर यमराज ने कुछ भी बताने से इंकार कर दिया। इस सारे दृष्टांत को वहां बैठा पक्षीराज गरुड़ देख रहा था। उसको लगा कि शायद कबूतर का अंत समय आ गया है‌। यह विचार कर उसने कबूतर को अपनी पीठ पर बैठाया और उसको एक हजार मील दूर एक गुफा में छोड़ कर वापस अपनी जगह पर आकर बैठ गया। उसको वहां बैठा देखकर यमराज फिर मुस्कुराए। इस बार नारद जी ने फिर यमराज से मुस्कुराने का कारण पूछा। तब यमराज ने कहा पहले मैं इसलिए मुस्कुरा रहा था कि इस कबूतर की मृत्यु एक हजार मील दूर एक पहाड़ी गुफा में कुछ ही क्षण में निश्चित है। लेकिन यह छोटा-सा कबूतर इतने कम समय में वहां तक कैसे जाएगा और अब मुस्कुराने का कारण स्वयं पक्षीराज गरुड़ हैं। जिन्होंने उस छोटे- से कबूतर को वहां पहुंचाने में मेरी मदद की। उस कबूतर की मृत्यु का कारण एक बिल्ली थी, जो वहां शिकार की तलाश में बैठी थी। जिसने उस कबूतर के प्राण हर लिये। यह सुनकर पक्षीराज गरुड़ को बड़ी पीड़ा हुई।

तब यमराज ने उसको समझाया कि हर जीव की मृत्यु का समय और स्थान निश्चित है। इसलिए आप परेशान न हों। लेकिन विडंबना यह है कि जीव जन्म लेते ही उस शाश्वत संबंध को भुला देता है और अपने बनाए संबंधों के जाल में उलझकर रह जाता है। उसे माता-पिता, भाई-बहन, पत्नी, बेटा-बेटी, मित्र आदि ही दिखाई देने लगते हैं। इन संबंधों की औपचारिकता निभाने में इतना समय निकल जाता है कि परमात्मा से संबंध निभाना तो दूर, याद करने का समय भी नहीं बचता। यदि हम अपने मूल संबंध के प्रति निष्ठावान नहीं हैं तो हम किसी अन्य संबंध को भी निष्ठा से निभाने योग्य नहीं हैं।

परमात्मा से संबंध की चिंता न करने का ही फल है कि आज निकट से निकट संबंध में खोट दिखाई दे रहा है। सारे संबंध स्वार्थों पर टिके हैं। जब वे स्वार्थ पूरे नहीं होते तो संबंध पल भर में ध्वस्त हो जाते हैं। बाहर से सामान्य दिखने वाले सारे संबंध मन की गहराइयों में कहीं न कहीं खोखले हैं। क्योंकि इस संसार में जिसके पास धन है, उसी के मित्र एवं बंधु-बांधव, रिश्ते-नाते हैं। वही धन- संपन्न व्यक्ति विद्वान है। धनरहित होने पर मनुष्य को मित्र, पुत्र, स्त्री तथा परिजन छोड़ देते हैं। धनवान् होने पर पुनः वे सभी उसी का आश्रय ग्रहण कर लेते हैं। मनुष्य स्वार्थ के वशीभूत होकर अपने संबंधों को भूल जाता है। वह इतना स्वार्थी हो गया है कि उसे अपने स्वार्थ के सामने किसी का दुख दर्द दिखाई नहीं देता।

इन खोखले संबंधों का बोझ ढोते- ढोते वह अनेक रोगों का शिकार हो जाता है। जब ये खोखले संबंध दबाव नहीं सह पाते तो सामाजिक विघटन दिखाई देने लगता है। जब जड़े सूखने लगें तो पेड़ कितने दिनों तक हरा- भरा रह सकता है। निश्चय ही हम एक ऐसी भयावह स्थिति की ओर बढ़ रहे हैं, जिसमें हमारे चारों तरफ के वातावरण में रिश्तों का विष फैला हुआ है। हम अपनों के ही विकास और समृद्धि में बाधा बनते जा रहे हैं। जिससे हम संबंधों के मकड़जाल में फंसते जा रहे हैं। जीवन में धन रूपी मायाजाल से बाहर निकलने के लिए रास्ता खोजते रह जाते हैं। इसका एक ही समाधान है, अपने मूल संबंध की जड़ों को फिर से हरा-भरा करना।

हमें अपने संबंधों को कुएं के जल और वट वृक्ष की छाया की भांति बनाना होगा। जैसे कुएं का जल और वट वृक्ष की छाया, शीतकाल में गर्म और गर्मी में शीतल होते हैं, वैसे ही हमारे संबंध स्वार्थ से ऊपर उठकर सुख- दुख में साथ देने वाले होने चाहिएं। परमात्मा ने हमें जीवन दिया। जीवित रहने के लिए सांसे दे रहा है। इससे बड़ा कारण और क्या हो सकता है उसके प्रति आभारी होने का? हर एक सांस के लिए उसका आभारी होना ही परमात्मा से संबंध की निष्ठा का निर्वहन करना है। इससे संसार और जीवन को देखने की दृष्टि बदल जाएगी। हमें यह स्मरण होना चाहिए कि इस संसार में हमें अपनी यात्रा पूरी करके वापिस उसी परमात्मा में एकाकार होना है। जिस प्रकार रात्रि में सदैव एक ही वृक्ष पर नाना प्रकार के पक्षियों का समूह शरण लेता है, किंतु प्रातःकाल होते ही वे सभी भिन्न-भिन्न दिशाओं में चले जाते हैं। उसी प्रकार हर जीव इस संसार में अपने कर्मों के अनुसार अपनी जीवन रूपी यात्रा को पूरी करता है, फिर वापिस उसी परमात्मा में एकाकार हो जाता है।।

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