92. अहितकारी ईर्ष्या

श्री गणेशाय नमः

श्री श्याम देवाय नमः

जब हम किसी कार्य में असफल हो जाते हैं और हम देखते हैं कि कोई हमारा जानने वाला, सफलता हासिल कर लेता है तो हमारे मस्तिष्क में ईर्ष्या के भाव पनपने लगते हैं। ईर्ष्या हमेशा अहितकारी ही होती है, कोई बिरला ही होगा जिसने ईर्ष्या करके अपने जीवन में सफलता का स्वाद चखा हो। क्योंकि ईर्ष्या गुणों को देख नहीं सकती और न ग्रहण कर सकती है। ईर्ष्या करने से अवगुण ही उत्पन्न होते हैं। ईर्ष्या करने के अनेक कारण हो सकते हैं। मन में कामना होने तथा दूसरों की हंसी-खुशी देखने से ईर्ष्या की उत्पत्ति हो सकती है।

एक व्यक्ति का दूसरे के विचारों से असहमत होना, पारिवारिक समस्याएं, सांस्कृतिक मान्यताएं, व्यवसाय में प्रतिस्पर्धा, आगे बढ़ने की होड़, दूसरों की सफलताएं न बर्दाश्त कर पाना आदि अनेकों कारण हैं, जो ईर्ष्या का कारण बनते हैं। माता-पिता जब बच्चे को किसी कार्य के लिए मना कर देते हैं, तो उसके कोमल मस्तिष्क पर एक कुंठा का भाव आ जाता है। जिससे उपजी ईर्ष्या बहुत भयानक रूप ले सकती है। क्योंकि जब बच्चे की इच्छाओं को दबा दिया जाता है, तो वे अवचेतन मन में कुण्ठाओं के रूप में आसन जमा कर बैठ जाती हैं। ऐसा बच्चा बड़ा होकर समाज के साथ संतुलन स्थापित नहीं कर सकता।

ईर्ष्या के कारण उसके दिमाग में ऐसे भावों का उत्पात मच जाता है जिससे वह उत्तेजनशील और उन्मादी स्वभाव का हो जाता है। शीघ्र उत्तेजित होने वाला व्यक्ति समाज के लिए अहितकारी साबित होता है। वह किसी के साथ मिलकर कार्य नहीं कर सकता और न ही किसी की बात को शांति से सुन पाता है। ऐसा व्यक्ति समाज में नकारात्मकता रूपी जहर फैलाने की कोशिश करता है। रचनात्मक सुझाव उसके पास नहीं होते। उसका अपने मानसिक आवेग पर नियंत्रण नहीं रहता जिसके कारण उसके जीवन के उपयोगी कार्य भी बाधित होते हैं।

ईर्ष्या से कभी किसी का भला नहीं होता। यह उसी व्यक्ति का संहार करती है, जिसके भीतर पनपती है। इससे उपजा द्वेष आत्मा के लिए अहितकर व आत्मविश्वास में बाधक है। इससे प्रायः मनुष्य का विवेक खो जाता है। जहां एक- दूसरे के स्वार्थ टकराते हैं, वहां ईर्ष्या- द्वेष की भावना पनपने लगती है। किसी की सफलता से जलकर दूसरों का अनिष्ट चाहने में अपनी ही क्षति होती है। हमारी मानसिक निर्बलताएं तभी उबरती हैं जब हम परिस्थितियों के अनुरूप समत्व स्थापित नहीं कर पाते। समत्व स्थापित करना बुद्धि, प्रज्ञा या विवेक का काम है और विवेक बुद्धि अनुभव तथा ज्ञान के साथ परिपक्व होता है। प्रत्येक मनुष्य अपनी बुद्धि का विकास करके उसे प्रज्ञा का रूप दे सकता है। जिस व्यक्ति का हम बुरा चाहते हैं, उस व्यक्ति को तो पता तक नहीं होता कि कोई उसके बारे में बुरे विचार रखता है।

किसी के प्रति ईर्ष्या का विचार आने पर स्वयं सबसे पहले ईर्ष्या करने वाले का ही रक्त जलता है और उसके विचार नकारात्मक होने लगते हैं। मन अशांत हो जाता है, जिसका असर दिनचर्या पर पड़ता है। जो दूसरों से ईर्ष्या वश, द्वेषभाव रखता है, वह स्वयं ही उससे पहले प्रभावित होता है। ईर्ष्या से भरे मनुष्य अपनी असफलता के लिए दूसरों को दोषी ठहराना, भाग्य को दोष देना आदि जैसी प्रवृत्ति को धारण कर लेते हैं। यह प्रवृत्ति जब भयंकर रूप धारण कर लेती है तो वह हर कार्य को ईर्ष्या की दृष्टि से देखता है। किसी वस्तु को देखकर उससे होने वाले ज्ञान और क्रिया-प्रतिक्रिया का नियंत्रण मस्तिष्क करता है। लेकिन मस्तिष्क में तो ईर्ष्या ने अपना आधिपत्य स्थापित कर रखा है। जब हम जानते हैं कि दूसरों से ईर्ष्या करने पर, उनका अनिष्ट चाहने पर हमको क्षति पहुंचेगी हमारी आत्मा दूषित हो जाएगी। हमें कहीं पर शांति नहीं मिलेगी, तो फिर हम क्यों दूसरे के प्रति बुरे विचार रखते हैं?

यदि हम यह सब जानते हुए भी दूसरों के प्रति ईर्ष्या का भाव और उसके प्रति बुरे विचार रखते हैं तो समझ लीजिए कि हम स्वयं को ही बुरा बना रहे हैं। आग जहां रखी जाती है, पहले उस स्थान को जलाती है। निरंतर रहने वाली ये ईर्ष्या के भाव कष्टदायक होने के साथ-साथ शारीरिक स्वास्थ्य के लिए भी हानिकारक हैं। यदि किसी से हमारे मतभेद हों, विरोधी विचार हों तो उसे उचित माध्यम से अपने विचारों को अभिव्यक्त करना चाहिए, पर मन में उसकी गांठ बांध लेना और फिर जीवन पर्यंत ईर्ष्या और क्रोध को पाल लेना स्वभाव के लिए घातक है। इसलिए मनुष्य ने अपने ईर्ष्या रुपी अवगुण पर उसी प्रकार विजयश्री प्राप्त कर लेनी चाहिए, जिस प्रकार माता रोते हुए बच्चे को खिलौना देकर अथवा बातों में लगाकर उसका ध्यान परिवर्तित कर देती है, जिससे बच्चा रोना बंद कर अपना ध्यान दूसरी और लगा लेता है। कुछ विचारकों का कहना है कि हमें असफलताओं को स्मरण करने के स्थान पर अपने सुखद भविष्य का चिंतन करना चाहिए। हमें ईर्ष्या के भाव को दफन कर विकास और उत्कर्ष के मार्ग पर अग्रसर होना चाहिए।

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