श्री गणेशाय नमः
श्री श्याम देवाय नमः
यह सार्वभौमिक सत्य है कि— प्रत्येक मनुष्य के भाग्य का निर्माण उसके कर्म ही करते हैं। इसलिए मनुष्य ही स्वयं का भाग्य विधाता है। भाग्य के निर्माण में कर्मों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। क्योंकि कर्म ही निर्णायक होते हैं। मनुष्य जैसे कर्म करता है, उसी के अनुसार उसके भाग्य का निर्माण होता है।
शास्त्रों में कर्मों को तीन श्रेणियों में बांटा गया है—
1 क्रियमाण
2 संचित
3 प्रारब्ध
क्रियमाण—कर्म वे होते हैं जो तत्काल फल देते हैं यानी कर्म करते ही उसका फल तुरंत मिल जाता है, इनका औचित्य भी समझ आ जाता है। जैसे अगर कोई विष खा लेता है तो तुरंत उसका प्रभाव दिखाई देता है। इसलिए क्रियमाण कर्म वे होते हैं जो वर्तमान में किए जाते हैं और जिनका फल भी उसी समय मिल जाता है। वास्तव में जो कर्म शरीर के किसी अंग द्वारा किए जाते हैं, उन्हें हम क्रियमाण कर्म कह सकते हैं।
संचित—हमारे दूसरे कर्म होते हैं, संचित कर्म। इन का फल तत्काल नहीं मिलता। मनुष्य जन्म-जन्मांतर के चक्र में उलझा रहता है। उसके हर जन्म के कुछ कर्म होते हैं जो भाग्य बन कर दूसरे जन्म में संचित कर्म के रूप में प्राप्त होते हैं। परंतु शास्त्र कहते हैं कि— यदि इन्हें अनुकूल परिवेश और गति मिले तो इनका फल भी शीघ्रता से मिल सकता है। अगर हम सच्चे दिल से ईश्वर का स्मरण करें और बुरे कर्म, छ्ल कपट आदि न करें तो इनका फल भी हमें शीघ्रता से ही मिल जाता है। अक्सर ऐसा होता है कि हम दिखावा करने के लिए कुत्तों को रोटी डालते हैं, पक्षियों के लिए दाना डालते हैं या कोई वस्तु दान करते हैं तो उसका फोटो खिंचवाते हैं, उस पर बड़े- बड़े अक्षरों में लिखवाते हैं कि यह वस्तु हमने दान की है यानी कि हर तरफ से पब्लिसिटी स्टंट करते हैं ताकि ज्यादा से ज्यादा लोगों को पता लगे और खासकर यह ध्यान रखते हैं कि हमारे आसपास के लोगों को पता लगे कि हम काफी धार्मिक हैं। लेकिन जब हम मंदिर जाते हैं तो वहां जाकर हमारा ध्यान ईश्वर पर नहीं बल्कि बाहर निकाले गए अपने जूते-चप्पलों पर होता है। हम करना तो अच्छे कर्म चाहते हैं लेकिन दिखावे के चक्कर में आकर उनका परिणाम अच्छा नहीं रहता। वहीं बुरे कर्मों की स्थिति में संचित कर्मों का फल निष्प्रभावी हो जाता है। हम एक तरफ शुभ कार्य कर रहे हैं, लेकिन दूसरी तरफ कुछ अशुभ तो संचित कर्मों का अच्छा फल नहीं मिलता जैसे एक तरफ दिखावे के लिए हम ईश्वर के नाम का जाप करें लेकिन दूसरी तरफ छल-कपट जैसे अधर्म करें तो हमारे अच्छे कर्म भी अप्रभावी हो जाते हैं।
प्रारब्ध कर्म—प्रारब्ध का अर्थ है कि पूर्व जन्म अथवा पूर्व काल में किए गए अच्छे व बुरे कर्म, जिनका वर्तमान में फल भोगा जा रहा है। प्रारब्ध कर्मों को कुछ मनुष्य भाग्य या किस्मत का नाम दे देते हैं। क्योंकि इनसे कोई महापुरुष भी नहीं बच सका। इनके प्रभाव से यकायक कुछ शुभ या अशुभ ऐसा हो जाता है कि विश्वास करना मुश्किल ही नहीं बल्कि नामुमकिन-सा लगता है कि यह भी हो सकता है। राजा रंक हो जाता है और रंक राजा बन जाता है। प्रारब्ध के कर्मों का दुष्प्रभाव तप एवं पुरुषार्थ से कम तो किया जा सकता है, लेकिन उन्हें पूर्णता समाप्त नहीं किया जा सकता । बड़े-बड़े महापुरुषों और सिद्ध पुरुषों को भी अपने प्रारब्ध के कर्मों को भोगना पड़ा है। अक्सर मनुष्य का जन्म ही इन कर्मों को भोगने के लिए होता है।
इसलिए हमें हमेशा शुभ कर्म ही करते रहना चाहिए और जो भी यकायक घट जाए, उसे सहजता से स्वीकार करते हुए, अपने ही कर्म का फल मानकर भविष्य के लिए बेहतर कर्म करने में सलंग्न होना चाहिए ताकि आने वाले समय को सुधारा जा सके और हमारे अगले जन्म के लिए संचित कर्मों का फल हमें शुभ मिले।
Meri jaan meri gindagi mera shree shyam sundar jai shree shyam
In our life “Karma” has importance so much..
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