99. बचें, परनिंदा से

श्री गणेशाय नमः

श्री श्याम देवाय नमः

संसार में कोई भी वस्तु मूल्यहीन और अनुपयोगी नहीं है। ईश्वर ने कुछ सोच समझकर ही प्रत्येक जीव की रचना की है। लेकिन मनुष्य की रचना विशेष गुणों के साथ की गई है। सबकी अपनी- अपनी आवश्यकताएं हैं। निंदा करने वाला मनुष्य अगर ईश्वर के कार्य में सहयोगी नहीं है तो उसे यह अधिकार भी नहीं है कि ईश्वर के कार्य में नास्तिक बन कर हस्तक्षेप करे। क्योंकि यहां विश्व रूपी उद्यान में सभी जीव ईश्वर के ही अंश हैं। यदि हम किसी की रचना नहीं कर सकते, किसी का भला नहीं कर सकते तो उसे बिगाड़ने का कार्य भी नहीं करना चाहिए।

किसी की भी निंदा करना एक दुर्गुण है। निंदा करने की आदत सबसे खराब प्रवृत्ति होती हैै। इस संसार में प्रत्येक मनुष्य किसी के लिए बहुत अच्छा है तो किसी के लिए बहुत बुरा भी है। अगर वह हमारे लिए बुरा है तो इसका मतलब यह बिल्कुल भी नहीं है कि वह सभी के लिए बुरा होगा, किसी न किसी के लिए तो वह अच्छा जरूर होगा। हम उसको केवल बुरा समझ कर उसकी निंदा करने का अधिकार प्राप्त नहीं कर सकते। मैं तो अच्छा हूं, पर वह बुरा है इसलिए मैं उसकी निंदा करता हूं, यह बिल्कुल भी ठीक नहीं है। क्योंकि अच्छाई और बुराई दोनों साथ-साथ चलते हैं।

जिस प्रकार अग्नि स्वयं में अच्छी भी है और बुरी भी है। जब हमें सर्दी लगती है और यह हमें गर्म करती है, उस समय यह हमारे लिए बहुत अच्छी होती है, क्योंकि उस समय इसकी हमें जरूरत होती है। लेकिन जब यह हमारी अंगुली को जला देती है तो यह हमारे लिए बुरी होती है। हम इसे दोष देने लगते हैं और निंदा करने लगते हैं। यही हाल मनुष्य का भी है, इस संसार में सभी मनुष्य अपना प्रयोजन पूर्ण करना चाहते हैं। अगर उसका स्वार्थ सिद्ध हो जाता है तो वह मनुष्य उसके लिए अच्छा होता है, वरना बुरा होता है । ऐसे में वह हर जगह, हर स्थान पर उसकी निंदा करना शुरू कर देता है।

हर समय निंदा करने वाले मनुष्य के जीवन में नकारात्मक भाव उत्पन्न हो जाता है। ऐसे लोगों की भावना और विश्वास दूषित होने लगते हैं। इस दुर्गुण के कारण अपना भी पराया बन जाता है और यही दुर्गुण चिंतन और चरित्र के विकास में सबसे बड़ी बाधा उत्पन्न करता है। निंदा करने वाला मनुष्य दुष्ट होता है और प्रशंसा करने वाला सज्जन। लेकिन जो मनुष्य ईश्वर को मानता है, अपने आपको ईश्वर का अंश समझता है, वह मनुष्य भूल कर भी किसी दूसरे मनुष्य की निंदा नहीं करता है क्योंकि उसे प्रत्येक के अंदर अपने इष्ट की छवि ही दृष्टिगोचर होती है। किसी मनुष्य की निंदा करते हैं तो इसका मतलब है कि हम ईश्वर की शिकायत कर रहे हैं, क्योंकि मनुष्य की संरचना ईश्वर की अद्वितीय कृति है। इसकी सुरक्षा की जिम्मेदारी ईश्वर ने हम मनुष्यों के हाथों में सौंपी है, क्योंकि संसार के सभी प्राणियों में चेतनशील प्राणी सिर्फ मनुष्य ही है।

दूसरों की निंदा करने से पहले हमें अपने अंतर्मन में झांक लेना चाहिए और अपने आचरण की समीक्षा कर अपने दुर्गुणों को ढूंढना चाहिए कि हमारे अंदर कितनी बुराइयां और अवगुण भरे पड़े हैं। हमें अपनी कमी समझ में आ जाएगी और उस दिन से हमारे जीवन में सकारात्मक बदलाव आने लग जाता है क्योंकि उस दिन से हम अपने अंदर की बुराइयों को दूर करने का प्रयत्न करने लगते हैं और फिर इस संसार को भी ईश्वर का स्वरूप समझने लगते हैं। फिर हम भूल कर भी किसी मनुष्य की निंदा नहीं करते क्योंकि उस दिन हमारी अंतरात्मा में ज्ञान की लौ जल चुकी होती है।

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