श्री गणेशाय नमः
श्री श्याम देवाय नमः
मृत्यु शब्द का नाम सुनते ही प्रत्येक प्राणी की सांसे ऊपर-नीचे होने लगती हैं, उसके हाथ पैर फूल जाते हैं, उसका दिमाग सुन्न हो जाता है, सोचने समझने की शक्ति क्षीण हो जाती है, पूरा शरीर कांपने लगता है, कानों से सुनना बंद हो जाता है, आंखों के सामने अंधेरा छा जाता है। कहने का अभिप्राय यह है कि— यह शब्द सुनते ही मनुष्य मृतप्राय हो जाता है।
मेरे ख्याल से ऐसा कोई भी नहीं होगा जो इस शब्द को सुनकर भयभीत न होता हो। अगर कोई यह कहता है कि वह मौत से नहीं डरता तो वह सरासर झूठ बोल रहा है। वास्तव में शरीर की आंतरिक एवं बाह्य क्रियाओं का रुक जाना ही मृत्यु है।
शास्त्रीय भाषा में ऐसा भी कहा जाता है कि जब जीवात्मा का इस शरीर के साथ भोग समाप्त हो जाते हैं तो वह इस भौतिक शरीर को त्याग देती है, जिसे मृत्यु कहा जाता है।
मृत्यु इस सृष्टि का नियम है। सृष्टि का क्रम जन्म-मरण की धूरी पर घूम रहा है। मृत्यु की चलती चक्की में अन्न के दानों की तरह हमें आज नहीं तो कल पिसकर ही रहना है। मृत्यु एक शाश्वत सत्य है। यह माता के गर्भ से लेकर आयु के किसी भी पड़ाव पर अपनी कुदृष्टि डाल देती है।
यह जीवन तो आकाश में चमकने वाली बिजली की भांति चंचल है। शरीर में स्थित वृद्धावस्था सिंहनी के समान भयभीत करती रहती है, रोग शत्रु की भांति शरीर में उत्पन्न होते रहते हैं, आयु फूटे हुए घड़े से निकलते हुए जल के सदृश क्षीण होती जाती है, अर्थात् हम पल-पल मृत्यु के समीप पहुंचते जाते हैं। जल में डूबे हुए घट के समान आयु मृत्यु के बहाने एक क्षण में ही समाप्त हो सकती है। इस धरा पर प्रत्येक मनुष्य अपना जन्मदिन बड़े हर्षोल्लास से मनाता है, किंतु वह यह भूल जाता है कि जैसे-जैसे उसकी आयु बढ़ती जाती है, वैसे- वैसे मृत्यु उसके पास चली आती है। वह धन- दौलत की चकाचौंध में मृत्यु की आहट को सुन ही नहीं पाता।
एक बार एक मरणासन्न व्यक्ति का मृत्यु से सामना हुआ, उसने मृत्यु से पूछा कि— आने से पहले आहट क्यों नहीं देती?
मृत्यु ने बड़ा सुंदर जवाब दिया कि— मैं तो हर वक्त आपको संकेत देती रहती हूं, लेकिन आप मोह- माया में उलझ कर समझ ही नहीं पाते। जैसे-जैसे आपकी आयु बढ़ती जाती है—आपके बाल सफेद होने लगते हैं, दांत गिरने लगते हैं, आंखों से दिखना कम हो जाता है, कानों से सुनाई देना लगभग बंद हो जाता है। हाथ- पैर कांपने लग जाते हैं। इतने संकेतों के बावजूद भी अज्ञानी मनुष्य तू भ्रम में रहता है कि मेरी मृत्यु अभी नहीं हो सकती। इसलिए मुझे दोष मत दे। इस शाश्वत सत्य को न तो झुठलाया जा सकता है, न इसे टाला जा सकता है।
हमें परम प्रिय लगने वाले, आज का, सुनिश्चित अस्तित्व, कल महा शून्य में विलीन होकर ही रहेगा। हमारे दार्शनिक ग्रंथों का भी यही कहना है कि— मृत्यु अनिवार्य घटना है परंतु मृत्यु की वास्तविकता इतनी भयानक नहीं है, जितनी कल्पनाओं ने गढ़ ली है। इस अनंत जीवन प्रवाह में मरण को सुखद विश्राम माना जाता है। जब तक शरीर में किसी प्रकार का दुख नहीं, विपत्तियां सामने नहीं आती, शरीर की इंद्रियां शिथिल नहीं पड़ती, तब तक मनुष्य मृत्यु की कल्पना भी नहीं करना चाहता। ऐसा वह कौन मनुष्य है, जो मारा नहीं जाता। जल के बुलबुले के समान मानव शरीर क्षणभंगुर है। जिन प्रिय वस्तुओं के साथ संनिवास है, वे अनित्य हैं, ये सत्यता मनुष्य को समझनी होगी। मृत्यु से जीवन का पूर्ण रूप से अंत नहीं होता, बल्कि एक नए जीवन का आगाज भी होता है।
हमारे ऋषियों का भी यह चिंतन था कि रात्रि में जिस तरह शयन किया जाता है और दूसरे दिन सुबह जागकर फिर नया कार्यक्रम बनाया जाता है, उसी प्रकार मरण का विश्राम लेकर हर बार नए जीवन में नए दिवस का आरंभ होता है। जीवन और मृत्यु अनवरत् रूप से चलने वाली ईश्वरीय व्यवस्था है। जिस प्रकार मधुमक्खी का छत्ता तथा शुक्ल पक्ष का चंद्रमा प्रतिदिन थोड़ा-थोड़ा बढ़ता जाता है, उसी तरह हम भी प्रतिदिन थोड़े-थोड़े मृत्यु की तरफ बढ़ते जाते हैं।
अगर मृत्यु न होती तो जीवन के महत्व का आभास भी हमें नहीं हो पाता। मृत्यु मनुष्य को सजग एवं विवेकी बनने की प्रेरणा प्रदान करती है। परंतु सांसारिक भोग हमें मृत्यु के वास्तविक अर्थ को समझने में बाधा उत्पन्न करते हैं। कोई वस्तु मुझे प्राप्त हो और पुनः वह मेरे पास से चली जाए तो कष्ट होता है, किंतु जो जहां से आई थी, वह पुनः वहीं चली गई तो उसमें कैसा दुख? दुख करने का कोई औचित्य ही नहीं है। रात्रि में सदैव एक ही वृक्ष पर नाना प्रकार के पक्षियों का समूह शरण लेता है, किंतु प्रातः काल होते ही वे सभी भिन्न-भिन्न दिशाओं में चले जाते हैं। उस आश्रय के विषय में पक्षियों को कौन- सा दुख होता है। इसी दृष्टांत को ध्यान में रखकर मनुष्य को वियोगजन्य दुख (सगे- संबंधियों की मृत्यु) में खिन्न नहीं होना चाहिए।
हमारी आध्यात्मिक विरासत हमें यह शिक्षा देती है कि— जिस प्रकार मनुष्य उज्जवल जीवन के लिए प्रतिदिन प्रयत्नशील रहता है, उसे अपनी मृत्यु के क्षण को भी कल्याणकारी बनाने का प्रयास करना चाहिए। मनुष्य को अपने मानव जीवन में ऐसे कर्म करने चाहिएं जिससे वह मृत्यु के बाद भी इस मृत्युलोक में जिंदा रहे। जैसे— अब्दुल कलाम, स्वामी दयानंद सरस्वती, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, रानी लक्ष्मीबाई, स्वामी विवेकानंद आदि ऐसे महापुरुष हुए हैं जिन्होंने निस्वार्थ अपने-अपने कार्य क्षेत्र में अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया।
कर्म करते हुए व्यक्ति को अनेक बंधनों को काटना पड़ता है, जिनमें लोभ, मोह व अहम् तीनों प्रमुख हैं। वास्तव में इन तीन दुष्प्रवृत्तियों से मनुष्य जीवन में छुटकारा पा लेना ही निर्वाण प्राप्त करना है। जिसके लिए कर्ममार्ग और ज्ञानमार्ग का रास्ता अनेक दार्शनिक प्रणालियों ने अपनाया है। इन तीनों दुष्प्रवृत्तियों से छुटकारा मनुष्य के जीवन को सार्थक सिद्ध करने में सहायता करता है। जो व्यक्ति इस को आत्मसात कर लेता है, वही वैराग्य के पथ पर बढ़ने लगता है। मृत्यु एक अटल सत्य है, जो मनुष्य को भोग- विलास, पाप के पथ पर बढ़ने से रोकती है।
पुराणों के अनुसार— पाप एक मनुष्य करता है, किंतु उसके फल का उपभोग बहुत से लोग करते हैं। भोक्ता तो अलग हो जाते हैं, पर कर्ता दोष का भागी होता है। चाहे बालक हो, चाहे वृद्ध हो, चाहे युवा हो, कोई भी मृत्यु पर विजय नहीं प्राप्त कर सकता। कोई अधिक सुखी हो अथवा अधिक दुखी हो, वह बारंबार आता- जाता है।
प्राणी सबके देखते-देखते सब कुछ छोड़ कर चला जाता है। इस मृत्युलोक में प्राणी अकेला ही पैदा होता है, अकेले ही मरता है और अकेले ही पाप- पुण्य का भोग करता है। बंधु- बांधव मरे हुए स्वजन के शरीर को पृथ्वी पर लकड़ी और मिट्टी के ढेले की भांति फेंककर पराड्मुख हो जाते हैं। धर्म ही उसका अनुसरण करता है। प्राणी का धन- वैभव घर में ही छूट जाता है। मित्र एवं बंधु- बांधव श्मशान में छूट जाते हैं। शरीर को अग्नि ले लेती है। पाप- पुण्य ही उस जीवात्मा के साथ जाते हैं। यही इस शरीर की गति है।
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