236. वैज्ञानिकों ने स्वीकारा— मृत्यु के बाद भी है, जीवन (पुनर्जन्म)

श्री गणेशाय नमः

श्री श्याम देवाय नमः

हमारे ऋषि-मुनियों ने सृष्टि के आरंभ में ही इस बात की पुष्टि कर दी थी कि— आत्मा अजर-अमर है। जब आत्मा है तो स्वाभाविक है, पुनर्जन्म होता है। क्योंकि आत्मा एक शरीर छोड़कर दूसरा शरीर धारण करती है। इसकी पुष्टि भगवद् गीता में दर्ज है।
महाभारत में जब कुरुक्षेत्र के मैदान में आकर, अर्जुन युद्ध करने से मना कर देता है और अपने अस्त्र-शस्त्र त्याग देता है और केशव को रणक्षेत्र से बाहर निकलने के लिए कहता है, तब भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को गीता का उपदेश देते हैं।

भगवद् गीता में दर्ज आत्मा की अमरता के जिस दर्शन को हम नकारने की भरसक कोशिश में लगे रहते हैं, उसकी सच्चाई अब सामने है। क्योंकि आत्मा को अजर-अमर और अविनाशी मानने की भारतीय पौराणिक- शाश्वत मान्यता को अब पश्चिम देशों के वैज्ञानिक भी अपने शोधों के आधार पर सही मानने लगे हैं। ऑक्सफोर्ड और एरिजोना विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने जो निष्कर्ष निकाले हैं, वो बेहद रोचक और भारतीय गौरवमयी ज्ञान परंपरा को प्रतिष्ठित करने वाले हैं। अब यह सिद्ध हो गया है कि आत्मा अमर है तो पुनर्जन्म भी स्वाभाविक है।

शताब्दियों से इंसान इसी शाश्वत समस्या के सत्य को जानने की कोशिश में लगा है कि मृत्यु होने के बाद क्या होता है? मृत्यु के बाद नए जीवन के रूप में पुनर्जन्म होता है या सब कुछ शून्य में बदल जाता है। इस विषय पर डॉक्टर रेमंड ए मूडी की किताब है—”लाइफ आफ्टर लाइफ”। इसका हिंदी अनुवाद “जीवन के बाद जीवन” शीर्षक से आया है। मूडी ने सौ से अधिक ऐसे लोगों से चर्चा की है जो मृत्यु को प्राप्त होने के कुछ समय बाद एकाएक जी उठे। इस बातचीत से निष्कर्ष निकला कि इंसान का जीवन मृत्यु के बाद भी खत्म नहीं होता।

आत्मा की अमरता की खोज करने वाले वैज्ञानिकों का दावा है कि मानव- मस्तिष्क एक जैविक कंप्यूटर की भांति काम करता है। इसकी पृष्ठभूमि में वह प्रोग्रामिंग है, जिसका सीधा संबंध आत्मा या चेतना से है। यह दिमाग के भीतर एक क्वांटम कंप्यूटर के माध्यम से गतिशील रहती है। यह निष्कर्ष भारतीय चिंतन के बेहद निकट है। यह अच्छी बात है कि विज्ञान के नए शोध भारतीय एवं पश्चिमी विधियों को जोड़ने की कोशिश कर रहे हैं।

देश के पहले सुपर कंप्यूटर “परम” के निर्माता और देश में सुपर कंप्यूटरिंग की शुरुआत से जुड़े सी-डेक के संस्थापक डॉ विजय भटकर का कहना है कि— सत्य को जानने के लिए कभी पश्चिमी शोधकर्ता स्मृति, शरीर और दिमाग पर निर्भर करते थे, लेकिन क्वांटम यांत्रिकी अर्थात् अतिसूक्ष्मता का विज्ञान आने के बाद उन्होंने चेतना पर भी बात शुरू कर दी है। दरअसल अब उन्होंने अनुभव कर लिया है कि भारतीय भाववादी सिद्धांत को समझे बिना चेतना का आकलन संभव नहीं है। जबकि अब तक पाश्चात्य विज्ञान का पूरा ध्यान प्रकृति बनाम पदार्थ पर ही केंद्रित रहा है।

इसलिए अब कंप्यूटर की भाषा को और बारीकी से समझने के लिए नासा जैसा विश्व प्रसिद्ध वैज्ञानिक संस्थान ‘पाणिनी व्याकरण’ की अष्टाध्यायी का अध्ययन कर रहा है। असल में क्वांटम सिद्धांत के अंतर्गत अति सूक्ष्म विज्ञान और परमाणु के स्तर पर पदार्थ और ऊर्जा के बीच संबंध को विस्तृत रूप में परिभाषित करने की कोशिश की जा रही है। यह विज्ञान की अपेक्षाकृत नवीन एवं ऐसी शाखा है, जिसकी मान्यताएं भारतीय सनातन विज्ञान और दर्शन से मिलती हैं। भारतीय मनीषियों ने सत्य को भौतिक, जैविक, मनोवैज्ञानिक परिस्थितिकी और ब्रह्मांडीय स्तर पर देखा परखा था।

पुराणों में वर्णित है कि— मृत्यु के पश्चात् प्राणी दूसरे शरीर में तुरंत भी प्रविष्ट हो सकता है और विलंब से भी। शरीर के अंदर जो धूमरहित ज्योति के सदृश प्रधान पुरुष जीवात्मा विद्यमान रहती है, वह मृत्यु के बाद तुरंत ही वायवीय शरीर धारण कर लेती है। जिस प्रकार एक तृण का आश्रय लेकर स्थित जोंक दूसरे तृण का आश्रय लेने के बाद पहले वाले तृण के आश्रय से अपने पैर को आगे बढ़ाता है, उसी प्रकार शरीर, पूर्व शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर में जाता है। उस समय भोग के लिए वायवीय शरीर सामने ही उपस्थित रहता है। मरने वाले शरीर के अंदर विषय ग्रहण करने वाली इंद्रियां उसके निश्चेष्ट हो जाने पर वायु के साथ चली जाती हैं।

वह जिस प्रकार शरीर को प्राप्त करता है उसको भी छोड़ देता है। जैसे स्त्री के शरीर में स्थित गर्भ उसके अन्नादिक कोश से शक्ति ग्रहण करता है और समय आने पर उसे छोड़कर वह बाहर आ जाता है। वैसे ही जीव अपना अधिकार लेकर दूसरे शरीर में प्रवेश करता है। उस पिण्डज शरीर से वायवीय शरीर एकाकार हो जाता है। यदि पिण्डज देह का साथ नहीं होता है तो वायुवीय शरीर कष्ट भोगता है। प्राणी के इस शरीर में जैसे कौमार्य, यौवन और बुढ़ापे की अवस्थाएं आती हैं, वैसे ही दूसरे शरीर को प्राप्त करने के बाद भी यही अवस्थाएं आती हैं। जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों का परित्याग कर नए वस्त्रों को धारण कर लेता है, उसी प्रकार शरीर, पुराने शरीर का परित्याग कर नए शरीर को धारण करता है।

कई बार जीवात्मा विलम्ब से दूसरा शरीर प्राप्त करता है। क्योंकि मृत्यु के बाद वह स्वकर्मानुसार यमलोक को जाता है। चित्रगुप्त की आज्ञा से वह वहां नर्क भोगता है। वहां की यातनाओं को झेलने के पश्चात् उसे पशु-पक्षी आदि की योनि प्राप्त होती है। मृत्यु के समय उसकी जो-जो इच्छाएं होती हैं, उन्हीं के वशीभूत हो वह उन- उन योनियों में जाकर जन्म लेता है।

इस जीवात्मा का छेदन शस्त्र नहीं कर सकते, अग्नि इसको जलाने में समर्थ नहीं है। जल इसे आर्द्र नहीं कर सकता और वायु के द्वारा इसका शोषण संभव नहीं है। कालांतर में इसे ही ऋषियों ने पंचतत्व से जोड़ा। सृष्टि और जीव- जगत के विकास का यही बीज मंत्र है। मनीषियों ने इस गुढ रहस्य को पुराणों में बड़े विस्तार से लिपिबद्ध किया है। इस भौतिक संसार में अवतरित होने के बाद हमारे जीवन में जो- जो घटनाएं घटती हैं, वे पहले से ही निर्धारित हैं। क्योंकि हमें अपने इस जीवन में जो भी कर्म किए हैं, उनका कर्मफल हमें ही इस जन्म में और अगले जन्म में चुकता करना है।

अक्सर कहा जाता है कि— मनुष्य जब इस संसार में जन्म लेता है तो वह क्या लेकर आता है और जब अपनी जीवन यात्रा को समाप्त करके इस संसार से विदा लेता है तो क्या लेकर जाता है?
एक कहावत भी प्रचलित है कि— क्या लेकर आया था और क्या लेकर जाएगा?
अर्थात् खाली हाथ आया था और खाली हाथ ही जाएगा।
लेकिन मेरा यह मानना है कि— हर प्राणी अपने संचित कर्मों को अपनी मुट्ठी में बंद करके लाता है और इस नश्वर शरीर को छोड़ते हुए अपने हाथों को फैला देता है, ताकि वो ईश्वर उसके इस जीवन के कर्मों का लेखा- जोखा उस पर अंकित कर दे, ताकि अगले जन्म में वह कर्म फल के अनुसार योनि प्राप्त करके, पुनर्जन्म में उनका फल भोगे। जन्म-मरण का यह चक्कर तब तक चलता रहता है, जब तक वह मोक्ष को प्राप्त नहीं करता।
जन्म-मरण का यह चक्कर इस बात की पुष्टि करता है कि मनुष्य का पुनर्जन्म होता है।

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