237. मनुष्य और सृष्टि

श्री गणेशाय नमः

श्री श्याम देवाय नमः

यह संपूर्ण सृष्टि ईश्वर द्वारा रचित है। मनुष्य इस सृष्टि का एक महत्वपूर्ण अंग है। समस्त प्रकृति का नियंत्रण ईश्वर के पास है और वही उसको लगातार चलायमान रखता है। जब सृजक एक है तो सृष्टि के सभी तत्वों में अंतरसंबंध से भी इन्कार नहीं किया जा सकता। यह उस परमात्मा द्वारा ही संभव हो सकता है कि— प्रकाश, रासायनिक द्रव्य, हवा और पानी की उपस्थिति मात्र से पौधे बढ़ते रहते हैं।

बीज के अंदर एक ऐसी अद्भुत शक्ति है जो अनुकूल परिस्थितियों में सक्रिय हो उठती है तब अनेक जटिल और समरस प्रतिक्रियाएं काम करने लगती हैं। वनस्पतियों के बढ़ने की इन नाना प्रक्रियाओं का कोई अवलोकन करें तो उसे वहां कम सौंदर्य समरसता और निर्भरता दिखाई देती है। यह ईश्वर ही है, जिसने प्रजनन के और वनस्पतियों के विकास के नियम बनाएं और वही नियम सृष्टि को चलायमान रखने में सहयोग देते हैं।

प्रकृति की चाहे किसी भी प्रक्रिया पर विचार किया जाए, सर्जन के किसी भी क्षेत्र का अध्ययन किया जाए, सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाए तो प्रकृति में यह नियमबद्धता उस परम सत्ता के द्वारा ही प्रदत की गई है। इस गतिशील विश्व- प्रपंच के लिए जो कार्य कारणता, परस्पर संबंधता, संतुलन, संकोचन, सरंक्षण, प्रसारण, घात- प्रतिघात, क्रिया- प्रतिक्रिया अपेक्षित है और जो युग- युगांतर तक चलती रहती है, वह बिना किसी ईश्वर के कैसे संभव है?

उस परम तत्व ने, न केवल सृष्टि की रचना की बल्कि तर्कसम्मत नियम और योजना के अनुसार सृष्टि की रचना की, जिसमें बुद्धि और ज्ञान की पराकाष्ठा थी। जिसमें अपनी योजना के अनुसार इसको रचने और इसे जारी रखने का सामर्थ्य था और जो सर्वत्र और समस्त विश्व भर में इसे लागू कर सकता था।

यह पूर्णतः सच है कि यह सब परमात्मा रूपी महानु शिल्पी की ही करामात है, जिसने मनुष्यों को भोगने के लिए इतनी सुंदर रचना, जिसका हर कार्य योजनाबद्ध तरीके से होता है और उनमें उच्च कोटि की व्यवस्था दृष्टिगोचर होती है, मानव जाति को वरदान के रूप में प्रदान किया। अगर गौर किया जाए तो हमारा संसार इतना जटिल और इतना दुर्बोध है कि यह अकस्मात् से निर्मित नहीं हो सकता।

यह इतनी सुक्ष्म गहनताओं से भरा हुआ है कि— इसका कारण कोई बुद्धिमान सत्ता ही हो सकती है। यह किसी अंधी और विवेकहीन शक्ति का चमत्कार नहीं हो सकता। पदार्थ के दूरबीन से भी नजर न आने वाले सूक्ष्म अवयवों के उद्गम की व्याख्या करने में विज्ञान असमर्थ है। केवल आकस्मिकता के नियम के सहारे विज्ञान नहीं बता सकता कि जीवन के निर्माण के लिए अणु, परमाणु कैसे एकत्रित हो गए जो सिद्धांत कट्टरता पूर्वक यह कहता है कि जीवन के सभी उच्चतर रूप अपने वर्तमान रूप में आकस्मिक परिवर्तनों पुनः मिश्रणों से आए हैं, उस सिद्धांत को मानने के लिए भी परमात्मा में श्रद्धा की आवश्यकता है।

प्रकृति के नियमों की खोज करके मनुष्य अज्ञेय की व्याख्या करने में समर्थ हो सकता है, किंतु मनुष्य प्रकृति के नियमों के पैदा करने में कभी समर्थ नहीं हो सकता। परमात्मा नियम- प्रदाता है। मनुष्य उन नियमों की खोज करता है और धीरे-धीरे प्रकृति की व्याख्या करनी सीखता है। वह प्रत्येक नियम जिसकी भी मनुष्य खोज करता है, वह मनुष्य को, परमात्मा को समझने के और निकट ले जाता है। उस परमसत्ता द्वारा मनुष्य को, प्रकृति रूपी अमूल्य धरोहर को, उपहार स्वरूप भेंट करने के बाद भी लगता है कि— एक मनुष्य ही है, जो इसे स्वीकार नहीं करना चाहता।

मानव सभ्यता का इतिहास भी यही इंगित करता है कि— मनुष्य और सृष्टि के अन्य घटकों के मध्य सामंजस्य का सदैव अभाव रहा है। उसने ईश्वर रचित वन काटे, पहाड़ काटे, नदियों के बहाव रोके, सागर पर बांध बनाए, धरती के गर्भ को रिक्त किया और उसकी स्वाभाविकता पर आघात किया। पशु- पक्षियों के आवास छिन लिए और उनके जीवन को संकट में डाला। अपने स्वार्थ के लिए मनुष्य ने प्रकृति को निरंतर घाव दिए हैं। विषय भोगों को अधिकाधिक मात्रा में भोगने की लालसा ही, आज के संसार में उत्पन्न हुए, अनियंत्रित औद्योगिकरण के पिछे मुख्य कारण है, जिसके परिणामस्वरूप आज सड़कों, नहरों, बांधों, रेलों, कारों, बसों, संचार- साधनों, कल- कारखानों, तकनीकी यंत्रों का जाल-सा बिछ गया है।

भोग सामग्री बढी, भोग बढा किंतु इन कल कारखानों, वाहनों तथा रासायनिक खादों आदि से उत्पन्न होने वाली महाविनाशकारी गैसों, धुएं और बीमारियों ने आज तबाही मचा दी है। अनियंत्रित औद्योगिकरण के परिणाम स्वरुप समस्त पृथ्वी पर प्रदूषण रूपी महा भयंकर भस्मासुर उत्पन्न हो गया। इस राक्षस के चंगुल में हवा, पानी, मिट्टी, ध्वनी, प्रकाश, आकाश सभी कुछ आ चुका है। जंगलों की अंधाधुंध कटाई नदी, नालों, तालाबों, खेतों में फेंकी जाने वाली गंदगी या कूड़े कचरे के कारण, पौधों की कार्बन डाइऑक्साइड को ग्रहण करने तथा पर्याप्त मात्रा में ऑक्सीजन को छोड़ने की प्राकृतिक प्रक्रिया मन्द होती जा रही है, जिसके कारण जंगल व पानी में रहने वाले जीवों का भी अहित हो रहा है।

मनुष्य स्वार्थपरता के कितने निचले स्तर पर जा सकता है, यह कहना कठिन है किंतु प्रकृति ने सदैव अपने गुण बचा कर रखे हैं। मनुष्य ने भले ही वन काट डाले किंतु आज जब वह कहीं बीज डालता है तो वह वृक्ष बनने से मना नहीं करता। नदी में जल आज भी बह रहा है। पक्षी आज भी चहकना नहीं भूले हैं। मधुमक्खियां आज भी फूलों से रसग्रहण करके मनुष्यों के लिए एक बहुमूल्य औषधी, शहद के रूप में प्रदान करती हैं। भंवरे आज भी फूलों पर मंडराते हैं। मोर आज भी नृत्य करने की कला को जीवित रखे हुए हैं। कोयल आज भी कुहकने के हुनर को बरकरार रखे हुए है।

मनुष्य जिस हाथ से सुंदर फूल तोड़ता है, फुल उस हाथ को भी सुगंधित कर देता है। मनुष्य का यह स्वभाव क्यों नहीं है? काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार जैसे विकार उसे अपने हाथों नचाए जा रहे हैं। मनुष्य सारी सृष्टि को अपने वश में करने का स्वप्न देख रहा है। वह अपने विकारों से सदैव पराजित होता है। यही उसकी विफलता और विनाश का कारण बनते हैं। मनुष्य अपने जीवन का लंबा समय ज्ञान अर्जन में लगाता है। यदि वह सृष्टि से मित्रवत् हो जाए तो बड़े-बड़े ग्रंथ उसके लिए अनावश्यक हो जाएंगे।

वह वृक्षों, वनस्पतियों के निकट जाकर देने की भावना धारण करें। जब संग्रहित कर लेने के स्थान पर, वृक्षों की तरह बिना भेदभाव देते जाना आ जाएगा तो उसका जीवन संवर जाएगा। पूरी प्रकृति हमें यह संकेत करती है कि अपने जीवन के व्यवहार व विचारों में त्याग भावना को जगाना चाहिए। अपने लिए दूसरों का हक ग्रहण मत करो बल्कि अन्यों के लिए अपना भी त्याग कर दो क्योंकि लेने की प्रवृत्ति स्वार्थ वृत्ति है और देने की प्रवृत्ति त्यागवृर्ती है। लेने की भावना राक्षसीवृर्ती है और देने की भावना देववृर्ती है। पहले दूसरों की आवश्यकताओं को देखो फिर अपनी और देखो। किसी से लेते भी हो तो उसे अनेक गुणा बढ़ाकर लौटाने के लिए लो।
भूरसायनशाखा प्रत्येक को यह सिखाती है कि— वह चीजों को व्यापक पैमाने पर देखें।
इसलिए मेरे लिए यह स्वभाविक हो जाता है कि— जिस परमसत्ता ने इस सृष्टि की रचना की है, जो इस सृष्टि के कण-कण में व्याप्त है, जो एक बेमिसाल शिल्पी है, उसकी बनाई हुई इस संरचना में अपना सहयोग दूं और उसकी बनाई हुई सृष्टि के कण-कण में परमात्मा के ही दर्शन करूं।

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