238. संवर्ग विद्या

श्री गणेशाय नमः

श्री श्याम देवाय नमः

संवर्ग का अर्थ होता है— संग्रहण या सब कुछ ग्रहण करना यानी आत्मसात् करना। जो विधि या वस्तु दूसरे को सही ढंग से आत्मसात् कर ले या फिर ग्रहण कर ले, वह संवर्ग संपन्न कही जाती है।
एक बच्चा अपने हाथ में जलता हुआ दीपक लेकर मंदिर जा रहा था। मार्ग में उसे एक सन्यासी बाबा मिल गए। उन्होंने बच्चे से पूछा— बेटा! दीपक की लौ कहां से आ रही है?
बच्चा बड़ा समझदार था। सन्यासी बाबा का यह प्रश्न सुनकर बच्चे ने दीपक को फूंक मारकर बुझा दिया और फिर उत्तर दिया कि— जहां से आ रही थी वहां चली गई।
इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि— संवर्ग से तात्पर्य है, वह महत तत्व जिसमें अन्य लघु तत्व विलीन हो जाते हैं।
अग्नि बुझने पर कहां जाती है? पानी जलने पर कहां विलीन हो जाता है ? क्या कभी इसके बारे में सोच विचार किया है?
इसका उत्तर यही है कि— ये सब वायु में लीन हो जाते हैं, यही संवर्ग विद्या है।

अपनी पुरातन संस्कृति में विभिन्न प्रकार की विधाओं का विस्तार से वर्णन मिलता है। उनमें से संवर्ग विद्या भी एक है। इस विद्या को जानना और चिंतन करना संवर्गन नाम से संबोधित किया जाता है।

इस विद्या से जुड़ी एक कहानी भी मिलती है। प्राचीन समय में एक राजा हुआ, जिसके पुत्र का नाम जनश्रुति था। एक युवराज होने के नाते उसने अपनी प्रजा की भलाई के लिए अनेक कार्य किए। जनश्रुति ने प्रजा से कर ले कर उसे वंचितों में वितरित करना प्रारंभ कर दिया। यहां तक की उसने अपने राज्य के धनपतियों से बड़ी धनराशि लेकर बड़ी-बड़ी धर्मशालाएं और अस्पताल भी खोले। उसकी प्रतिष्ठा चारों दिशाओं में फैल चुकी थी। वह प्रजा के मध्य बड़ा ही लोकप्रिय हो चुका था। दूसरे राजाओं के राज्य में उसकी मिसाल दी जाती थी। सभी कुछ बहुत अच्छा चल रहा था।
एक बार आकाश मार्ग से जाने वाले हंसों में से एक ने जनश्रुति की प्रशंसा की, जबकि अन्य ने जनश्रुति की प्रतिष्ठा के पीछे रैक्व का हाथ बताया। उनका कहना था कि रैक्व को संवर्ग विद्या आती है, जिसके प्रताप के कारण ही जनश्रुति के राज्य में लोग दान देने के लिए हमेशा तत्पर रहते हैं। उन्होंने यहां तक भी कहा कि रैक्व में एक विशेषता यह भी थी कि जो व्यक्ति अच्छा कार्य करता था, उसका तेज अपने आप रैक्व के शरीर में समा जाता था।

हंसों के मुख से जब जनश्रुति ने रैक्व के बारे में सुना तो उसने अपने अनुचरों को उसकी तलाश करने के लिए भेजा। बहुत खोजने के पश्चात् रैक्व का ठिकाना मिला। वह एक साधारण- सा गाड़ीवान था। अपनी गाड़ी के नीचे सो रहा था। मगर उसके आसपास का वातावरण खुशहाली से भरपूर था। अनुचरों ने उसके ठिकाने की सूचना जनश्रुति को दी। जनश्रुति स्वयं चल कर रैक्व के समक्ष उपस्थित हुआ और संवर्ग विद्या सीखने की प्रार्थना की।
अपने युवराज की प्रार्थना सुनकर रैक्व उसे संवर्ग विद्या सिखाने के लिए तैयार हो गया।

जनश्रुति ने रैक्व से पूछा कि—आखिर संवर्ग विद्या है क्या?
हमारे आसपास ऊर्जा का समुद्र लहरा रहा है। सूर्य, चंद्रमा यहां तक कि वृक्ष एवं पशु- पक्षी भी अपनी- अपनी तरह से उर्जा को विकीरित कर रहे हैं। कुछ विशेष समय अवधि में विपश्यना प्रक्रिया द्वारा इस ऊर्जा को स्वयं में समाहित किया जा सकता है। रैक्व इस विद्या को जानता था अर्थात् इस एनर्जी को वह स्वयं में कैसे समाहित करते हैं, इसका ज्ञान उसे था।
रैक्व से चलकर यह विद्या बौद्धों में आई। आज भी तिब्बत के बहुत सारे बौद्ध इस विद्या का प्रयोग करते हैं। तिब्बत में सर्दी इतनी अधिक पड़ती है की हर समय मनुष्य उष्मा के लिए छटपटाता है, जबकि बौद्ध साधक इस विद्या के सहारे अपने शरीर का तापमान घटाते बढ़ाते रहते हैं। अत्यधिक सर्दी होने पर इस विद्या का प्रयोग कर अपने शरीर को इतना उष्म बना लेते हैं कि उस पर सर्दी का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। अत्यधिक ऊंचाई पर जाने के पश्चात् प्राणवायु हल्की हो जाती है तो वे संवर्ग विद्या का सहारा लेकर एक बार में ही अधिक घनत्वपूर्ण प्राणवायु अपने शरीर की एक- एक कोशिका तक पहुंचा देते हैं।

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