श्री गणेशाय नमः
श्री श्याम देवाय नमः
एक आश्रम में कुछ शिष्य अध्ययन करते थे। शिष्यों के मन में कोई न कोई जिज्ञासा हिलोरे मारती ही रहती थी। इसलिए वे अपनी जिज्ञासा को शांत करने के लिए गुरु जी से प्रश्न पूछते रहते थे। जिससे उनकी जिज्ञासा शांत हो सके।
एक दिन एक शिष्य गुरु जी के पास गया और उनसे पूछा— गुरुजी! जब जीवन में सुख आता है तो मनुष्य खुश हो जाता है। वह अपने सुख के क्षणों को हमेशा याद रखता है। लेकिन फिर दुख आ जाता है, जिसे कोई स्वीकार नहीं करना चाहता और न ही कोई याद रखना चाहता। फिर दुख आता ही क्यों है?
गुरुजी ने कहा इसका उत्तर मैं तुम्हें कल देता हूं। कल मुझे नदी के दूसरे किनारे पर जाना है। इसलिए तुम्हारी बात का उत्तर मैं, तुम्हें नाव में बैठकर दूंगा।
शिष्य ने कहा— ठीक है। गुरुजी!और वह फिर कल का इंतजार करने लगा।
अगले दिन दोनों नाव में सवार हो गए। गुरुजी नाव का चप्पू चलाने लगे। लेकिन वह सिर्फ एक ही चला रहे थे। इससे नाव गोल- गोल घूमने लगी। आगे बढ़ ही नहीं रही थी।
तब शिष्य ने कहा— गुरु जी! अगर आप एक ही चप्पू से नाव चलाते रहे तो हम आगे बढ़ नहीं पाएंगे।
शिष्य की बात सुनकर गुरु जी ने कहा— लो, तुमने स्वयं ही अपने प्रश्न का उत्तर दे दिया। अगर जीवन में सिर्फ सुख ही सुख होगा तो जीवन की नाव गोल- गोल घूमती रहेगी। आगे बढ़ेगी ही नहीं। जिस तरह नाव को साधने के लिए दो चप्पू चाहिए, उसी तरह जीवन को चलाने के लिए सुख के साथ दुख भी आवश्यक है।
कीचड़ युक्त पानी जब स्थिर हो जाता है तो उसमें घुली मिट्टी नीचे बैठ जाती है और स्वच्छ पानी ऊपर रह जाता है। ऐसे ही सकारात्मक विचार प्रभावी होकर पूर्णता को प्राप्त करते हैं और जीवन को एक सार्थक गति प्रदान करते हैं। हमारे अधिकांश कार्य तो शरीर संपन्न करता है लेकिन शरीर की बागडोर हमारे मस्तिष्क के हाथ में होती है और मस्तिष्क को चलाने वाला हमारा मन होता है। मन की उचित गति के अभाव में न तो मस्तिक ही कार्य करेगा और न ही शरीर। इसलिए शरीर को गति प्रदान करने के लिए मन पर नियंत्रण होना बहुत आवश्यक है, जिससे उसमें सिर्फ सकारात्मकता का निवास हो। वैसे देखा जाए तो सभी समस्याओं का मूल, शरीर और मन की गति में अंतर होना है।
जीवन में संतुलन होना बहुत आवश्यक है। रेलगाड़ी के डिब्बे तभी गंतव्य तक पहुंच पाते हैं, जब इंजन के साथ- साथ चलते हैं। इसलिए इंजन और डिब्बों में संतुलन आवश्यक है। इसी प्रकार शरीर और मन में भी संतुलन और लयात्मकता अनिवार्य है। अगर मन स्थिर नहीं है, वह इधर- उधर भाग रहा है और शरीर उसका साथ नहीं दे पा रहा है तो समस्या तो उत्पन्न होंगी ही। इंजन भागा जा रहा है, मगर उसकी गति इतनी तेज है कि डिब्बे उछल रहे हैं तो उनके पटरी से उतरने की संभावना ज्यादा हो जाती है। उनके बीच की कड़ी टूटने वाली है, ऐसी स्थिति में इंजन की गति को नियंत्रित करना एक प्रकार से इंजन और डिब्बों के बीच की कड़ी को टूटने से बचाना है।
क्या तेज गति से दौड़ते इंजन वाली गाड़ी में बैठे यात्री सुरक्षित होंगे? शायद नहीं। इसलिए इंजन तथा इंजन रुपी मन दोनों की गति पर नियंत्रण होना जरूरी है। जीवन में भागदौड़ सिर्फ़ खुश रहने के उद्देश्य से की जाती है परंतु हम जितनी भागदौड़ करते हैं, उतने ही खुशी से दूर चले जाते हैं। इसलिए अगर हम चाहते हैं कि जीवन में खुश रहें तो जीवन की गति तथा विचारों के प्रवाह को नियंत्रित कर उन्हें संतुलित करना आवश्यक है। संतुलन में रहकर ही हम अपने जीवन में खुश रह सकते हैं।