श्री गणेशाय नमः
श्री श्याम देवाय नमः
जिस प्रकार बीज की यात्रा वृक्ष तक है, नदी की यात्रा सागर तक है, जन्म की यात्रा मृत्यु तक है, उसी प्रकार मनुष्य की यात्रा परमात्मा तक है, यही सत्यता है। इसको कोई नकार नहीं सकता। यह सत्य है कि परमात्मा की निकटता पाने के लिए हमारे भीतर सत्य का भाव होना जरूरी है। इसके लिए परमात्मा के नाम का सहारा लेना ही एक उपाय है। कोई भी परमात्मा का नाम, जिसमें आप श्रद्धा रखते हैं, जो आप के आराध्य हैं, जो आपके हर श्वास में समाहित हैं, उस परम सत्ता के नाम का सहारा ही आपकी जीवन यात्रा को कुशलतापूर्वक पार लगा सकता है।
विनोबा भावे ने एक बार कहा था कि— दो धर्मों के बीच कभी झगड़ा नहीं होता। झगड़ा सदैव दो अधर्मों के बीच होता है। धर्म के नाम पर झगड़े होने का कारण यह है कि— हम दूसरे के सत्य को कुबूल नहीं करते। मैं जो कुछ कह रहा हूं, वही सत्य है, वही सही है। दूसरे का सत्य सही नहीं है। यही भावना मनुष्य को असत्य बोलने पर विवश करती है। हमें इस मानसिकता को छोड़ना होगा। हमें अपने सत्य को विनम्रता से पेश करना चाहिए। उसे जबरदस्ती किसी पर थोपने की जिद नहीं करनी चाहिए। मेरे पास गाड़ी है, यह मेरा सत्य है। दूसरे के पास बाइक है, यह उसका सत्य है। आकाश में सूरज है, यह सब का सत्य है। रात के बाद दिन निकलता है, अंधेरे के बाद उजाला, सुबह के बाद शाम, ये सृष्टि का सत्य है। अगर सभी सत्य स्वीकार कर लिए जाएं तो विवाद की गुंजाइश ही नहीं रहेगी।
मैं सत्यता को एक सच्ची घटना के माध्यम से प्रस्तुत करती हूं—
रामायण में जब रावण, माता सीता का हरण करके आकाश मार्ग से जा रहा था, उस समय माता की चीख-पुकार सुनकर जटायु उन्हें बचाने के लिए दौड़ा। रावण के साथ युद्ध करने में गिद्धराज जटायु काफी कमजोर और असहाय था, लेकिन फिर भी वह रावण से भिड़ गया और उससे युद्ध करने लगा। अपनी इस सत्यता को जानते हुए भी कि मैं रावण का मुकाबला करने में समर्थ नहीं हूं, फिर भी माता सीता को बचाने के लिए अपने प्राणों को संकट में डाल दिया। जब रावण ने जटायु के दोनों पंख काट डाले तो काल आया और जैसे ही काल आया, गिद्धराज जटायु ने मौत को ललकार कर कहा —
खबरदार! ऐ मृत्यु! आगे बढ़ने की कोशिश मत करना। मैं मृत्यु को स्वीकार तो करूंगा— लेकिन तू मुझे तब तक नहीं छू सकती, जब तक मैं सीता जी की सुधि प्रभु श्री राम को नहीं सुना देता। मौत उन्हें छू नहीं पा रही है— कांप रही है, खड़ी होकर———।
मौत तब तक खड़ी रही, कांपती रही, जब तक श्री राम माता सीता की खोज करते हुए वहां तक नहीं पहुंचे। जब श्रीराम वहां पर पहुंचे तो जटायु अंतिम सांस गिन रहा था। तब श्री राम ने जटायु से उसकी इस हालत के बारे में जानना चाहा तो जटायु ने कहा— रावण, माता सीता का हरण करके ले जा रहा था। तब मैं अपने आप को रोक नहीं पाया। एक नारी का अपमान होता देख कर मुझसे रहा नहीं गया और मैंने रावण को युद्ध के लिए ललकारा। जबकि मुझे पता था कि मैं रावण से जीत नहीं सकता, लेकिन फिर भी मैं लड़ा। यदि मैं नहीं लड़ता तो आने वाली पीढ़ियां मुझे कायर कहती।
श्री राम ने जटायु को अपनी गोद में उठा लिया और काल भी खड़ा होकर देखता रह गया। ये सत्य का फल है जो जटायु को सत्य का साथ देने पर मिला। उसे भगवान श्री राम की गोद प्राप्त हुई।
दूसरी तरफ महाभारत में भीष्म पितामह हैं जो बाणों की शय्या पर लेट करके मौत का इंतजार करते रहे।— आंखों में आंसू हैं—रो रहे हैं— भगवान मन ही मन मुस्कुरा रहे हैं।
कितना अलौकिक है, यह दृश्य— रामायण में गिद्धराज जटायु भगवान की गोद रूपी शय्या पर लेटे हैं—प्रभु श्री राम रो रहे हैं और जटायु हंस रहे हैं।
वहीं महाभारत में भीष्म पितामह रो रहे हैं और भगवान श्री कृष्ण हंस रहे हैं।
दोनों में भिन्नता सत्यता की है। जटायु ने सत्य का साथ दिया तो उसे अन्त समय में प्रभु श्रीराम की गोद की शय्या मिली। मृत्यु भी उसका कुछ नहीं बिगाड़ पाई और हाथ बांधकर उसके सामने खड़ी होकर कांपती रही और उसकी हां का इंतजार करती रही।
लेकिन भीष्म पितामह को असत्य का साथ देने की वजह से मरते समय बाणों की शय्या मिली। इच्छा मृत्यु का वरदान मिला होने के कारण भी भीष्म पितामह मौत का इंतजार करते रहे। क्योंकि वह सूर्य के उत्तरायण होने का इंतजार कर रहे थे। जटायु अपने सत्य रूपी कर्म के बल पर अंत समय में भगवान की गोद रूपी शय्या में प्राण त्याग रहा है—प्रभु श्री राम की शरण में है। जबकि बाणों की शय्या पर लेटे भीष्म पितामह की आंखों से अश्रुधारा बह रही है।——
ऐसा इसलिए हो रहा था कि भरे दरबार में भीष्म पितामह ने द्रोपदी की इज्जत को लूटते हुए देखा था— विरोध नहीं किया था।
दुशासन को ललकार देते— दुर्योधन को ललकार देते— लेकिन द्रोपदी रोती रही— बिलखती रही— चीखती रही— चिल्लाती रही —लेकिन भीष्म पितामह सिर झुकाये बैठे रहे— नारी की रक्षा नहीं कर पाए।
उसका परिणाम यह हुआ कि—इच्छा मृत्यु का वरदान पाने पर भी बाणों की शय्या मिली। समर्थ होते हुए भी नारी का अपमान होते हुए देखा। ऐसी दुर्गति तो होनी ही थी।
जटायु ने नारी का सम्मान किया—समर्थ न होते हुए भी अपने प्राणों की आहुति देने को तैयार हो गया।
यही सत्यता की परिभाषा है।
जो दूसरों के साथ गलत होते देखकर भी आंखें मूंद लेता है। सत्य का साथ नहीं देता, उसकी गति भीष्म जैसी होती है। जो अपना परिणाम जानते हुए भी, औरों के लिए संघर्ष करता है, उसका अंत जटायु जैसा होता है कि भगवान स्वयं अपनी गोद में लेकर रो रहे होते हैं। इसलिए हमें सत्य को स्वीकार कर लेना चाहिए।
सत्य परेशान जरूर करता है, पर पराजित नहीं होता। रामायण में ऐसे कई उदाहरण हैं, जो सत्य की परीक्षा में उत्तीर्ण होते हैं। माता सीता ने रावण का डटकर और निडरता से सामना किया। अनेक प्रलोभन देने के बावजूद भी वह अपने धर्म से विचलित नहीं हुई, उसने सत्य का साथ दिया।
फिर माता की खोज में जब हनुमान लंका गए तो रावण ने उनकी पूंछ में आग लगवा दी। उसके बावजूद भी हनुमान डरे नहीं, अपने सत्य पर अडिग रहे। ऐसे बहुत से उदाहरणों से इतिहास भरा पड़ा है, जो सत्य के पथ पर चलकर एक मिसाल बन गए। सत्य को जीवन में मन, वचन और कर्म से स्वीकार करने वाला व्यक्ति ही सामाजिक जीवन में प्रतिष्ठा एवम् सम्मान का अधिकारी बनता है।
जैसा देखा, जैसा सुना और जैसा अपने मन में हो, उसको वैसा ही कहना और स्वीकार करना सत्य कहलाता है। परंतु वह सत्य मधुर और परोपकारक होना चाहिए।
शास्त्रों में कहा है—
“सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात्”— सदा सत्य बोलें, प्रिय बोलें।
इसलिए सत्य बात भी मधुर शब्दों में कहने पर ही सुख देती है।
महाभारत के शांतिपर्व के अनुसार— सत्य बोलना अच्छा है परंतु सत्य से भी हितकारी वचन बोलना श्रेष्ठ है। जिससे प्राणियों का वास्तविक हित या भलाई होती हो, वही सत्य है। जिस सत्य को बोलने से किसी निरपराध प्राणी को कष्ट या उसे अपने प्राणों से हाथ धोना पड़े, वह सत्य न होकर पाप ही माना जाता है। यदि आपके सत्य बोलने से किसी व्यक्ति का भला नहीं होता हो तो उसे नहीं बोलना चाहिए। यह आवश्यक नहीं है कि बिना अवसर के सत्य को सबके सामने प्रकट किया जाए। सत्य सदा सरल होता है। सत्यता में किसी प्रकार का छल-कपट और कुटिल व्यवहार नहीं होता।
जिस बात को कहने से मन में निर्भीकता बनी रहे, मन में संकोच, भय, लज्जा के भाव नहीं आएं और उत्साह बना रहे, वह सत्य है। परमात्मा ने सत्य में श्रद्धा और झूठ में अश्रद्धा को स्थापित किया है। सत्यवादी को किसी प्रकार का भय नहीं होता। आत्मा की आवाज को दबाकर सत्य के स्थान पर असत्य बोलना महापाप है। ईश्वर सत्य की सदा रक्षा करता है। मन, वचन और कर्म में सत्य की पूर्ण प्रतिष्ठा होने पर व्यक्ति जो कुछ वाणी से कह देता है, उसका वह वचन पूरा होता है। एक और अश्वमेघ यज्ञ के फल को तराजू के पलड़े में रखें और दूसरी और सत्य को रखने पर, सत्य का पलड़ा ही भारी रहेगा।
Your blog is a true hidden gem on the internet. Your thoughtful analysis and engaging writing style set you apart from the crowd. Keep up the excellent work!