271. आसक्ति से मुक्ति

श्री गणेशाय नमः

श्री श्याम देवाय नमः

आसक्ति एक मानसिक भाव है। यह एक लगाव है— उन वस्तुओं या व्यक्तियों से जिनके बिना उन्हें कुछ भी अच्छा न लगे। आसक्ति एक तरह का नशा है, नशे में व्यक्ति की जो मनोदशा होती है, वही आसक्ति में भी होती है। आसक्त हुए व्यक्ति को अच्छे-बुरे की कोई पहचान नहीं होती।
जैसे— एक शराबी को ही लें, वह बिना पिये नहीं रह सकता। वह, यह जानते हुए भी कि शराब से उसके स्वास्थ्य पर हानिकारक प्रभाव पड़ रहा है, इसके बावजूद भी वह पी रहा है।
ऐसा क्यों?
ऐसा इसलिए कि वह व्यक्ति शराब के प्रति आसक्त है।
जिन व्यक्तियों ने मानव चेतना को जाना है, समझा है, उसकी सच्चाई का अनुभव किया है, उनका स्पष्ट कहना है कि जब कोई व्यक्ति आसक्ति या अहंता के प्रभाव में आ जाता है या उनसे घिर जाता है, तो उसके लिए पाप के अनेकों द्वार खुल जाते हैं। वह चाहे, अनचाहे पाप करने लगता है।

आसक्ति का भाव ही पाप का स्रोत है। क्योंकि वह सही गलत की पहचान करने में समर्थ नहीं होता। ऐसे में वह जो भी करता है, वही पाप बन जाता है या ऐसी स्थिति में जो भी सोचता है, उस पर भी नकारात्मक प्रभाव दृष्टिगत होता है।

भौतिक वस्तुओं का उपभोग करने के पश्चात उनकी वासना पुनः उन्हीं वस्तुओं के लिए प्रेरित करती रहती है। इसी वासना के वशीभूत हुआ व्यक्ति भौतिक साधनों को एकत्रित करने के लिए प्रवृत्त होता है तथा अन्य लोगों की आवश्यकताओं की ओर ध्यान न देकर, निजी सुखोपभोग के लिए साधनों को एकत्रित करने लगता है। सुखोपभोग के साधनों को एकत्र करने के लिए बहुत सा समय, बुद्धि और श्रम लगाना पड़ता है। जब वे साधन इकट्ठे हो जाते हैं, तब उनकी रक्षा करने की चिंता हो जाती है। यदि किसी कारणवश ये साधन छिन गए या नष्ट हो गए तो फिर दुख का पारासर ही नहीं रहता।

आसक्ति के वशीभूत हुआ व्यक्ति भौतिक साधनों को प्राप्त करने में इतना व्यस्त हो जाता है कि वह, यह भूल जाता है की इस मोह माया से उसकी मुक्ति कैसे होगी? इस शरीर को चाहे कितने भी ऐशो- आराम के साधनों का उपभोग करके आराम से रखा जाए, अंत में इसे जीर्ण होना ही है। हम देखते हैं कि— हिरण- ‘शब्द’, हाथी- ‘स्पर्श’, पतंगा-‘रूप’, भौंरा-‘गन्ध’, और मछली- ‘स्वाद’ के वशीभूत होकर अपने प्राण दे देते हैं। इन प्राणियों की केवल एक-एक विषय में आसक्ति के कारण दुर्गति होती है। जो व्यक्ति पांचों इंद्रियों के विषयों में आसक्त होकर विलासिता का जीवन व्यतीत कर रहा है, वह क्यों न मारा जाएगा? जैसे- चमड़े से बने पात्र में एक भी छिद्र हो जाए तो उसमें रखा हुआ सारा जल बाहर निकल जाता है, इसी प्रकार जो व्यक्ति एक भी इंद्रिय का दास है, उसकी प्रज्ञा नष्ट हो जाती है।

एक संत हुए हैं— पीडी आस्पेन्स्की
जो विचारशील और दार्शनिक थे। जिनकी ख्याति दूर-दूर तक फैली हुई थी।
आस्पेन्स्की के शिष्य बेनेट ने अपने शब्दों में लिखा है कि जब उसने अपने गुरु से पाप-पुण्य की चर्चा की तो उन्होंने कहा— अहंकार व आसक्ति के रहने पर पुण्य करना असंभव है और इनके ‘न’ रहने पर पाप बिल्कुल नहीं होते।
अपने गुरु की इस शिक्षा को बेनेट ने कई बार परखा और पाया कि अंहकार और आसक्ति से मुक्त मन: स्थिति में पाप नहीं हो सकता।
तब समझ आया कि पाप के लिए अंहकार व आसक्ति जरूरी है और पुण्य के लिए अंहकार व आसक्ति से मुक्ति जरूरी है।
इसके विपरीत जब अहंता व आसक्ति की मूर्छा टूटती है, तो व्यक्ति अपने आप जाग जाता है, क्योंकि आसक्ति के कारण ही व्यक्ति की मूर्छा गहरी होती है। जितना ज्यादा अंहकार होता है, उतनी ज्यादा ही आसक्ति होती है। इसलिए यदि आसक्ति से मुक्ति पानी है तो अंहकार का त्याग करना होगा।

हम कितने ही गुणों से भरे हों, लेकिन साथ में उन गुणों के होने का अंहकार भी हो तो वे गुण किसी काम के नहीं रहते।
मैं अक्सर सोचती हूं कि— काम और अर्थ की भी जीवन में एक संतुलित मात्रा में आवश्यकता होती है, लेकिन अंहकार की कोई जरूरत ही नहीं है।

अंहकार एक तरह का कैंसर है। अंहकार और आसक्ति ने ही रावण को राक्षस बना दिया। जबकि राम को उनकी उदारता और त्याग ने सूर्य बना दिया।

भर्तृहरि ने कहा है—पहले हृदयाघात या कैंसर जैसे रोगों से इतने व्यक्ति पीड़ित नहीं होते थे। एड्स जैसे भयंकर रोग का तो नामो-निशान भी नहीं था। इन विविध घातक रोगों की उत्पत्ति के पीछे अंहकार और आसक्ति का भाव ही है।
जब आसक्ति की तंद्रा टूटती है तो चैतन्यता के अनेकों द्वार खुल जाते हैं। चारों तरफ प्रकाश अनेकों द्वारों से अस्तित्व में प्रवेश करता हुआ ऐसा लगता है जैसे रात्रि के अंधकार को भेदन करती हुई उषा, पूर्व दिशा में प्रकट होती है।
उगते सूर्य की लालिमा से सारा आकाश अरुण वर्ण का हो गया है, जिसने हमारे मस्तिष्क, हृदय और समस्त शरीर को भी रक्त वर्ण बना दिया है। ऐसे में व्यक्ति की मूर्छा टूट जाती है तथा व्यक्ति का चेतन बढ़ जाता है। जब चैतन्यता पूर्ण रूप से अपना अधिकार स्थापित कर लेती है तो मनुष्य का हृदय निर्मल और पवित्र हो जाता है। निर्मल हृदय से भाव-विभोर हुए व्यक्ति को सितारों की माला ऐसे चमकती दिखाई देती है, जैसे बिजली कौन्धती हो। ऐसे लगने लगता है कि बहुत से चांद और सूर्य आकाश में चमक रहे हों, तथा सारा संसार झिलमिल-झिलमिल होकर प्रकाशित होता दिखलाई देता है। यह देखकर अत्यंत आनंद की अनुभूति होती है।

जब व्यक्ति आनंद विभोर होता है, तो पुण्य के अनेक द्वार खुलते हैं। ऐसी स्थिति में जो भी कर्म किए जाते हैं, वे वास्तव में पुण्य ही हो जाते हैं। क्योंकि मनुष्य के जागृत हो जाने के बाद पुण्य के अनेक रास्ते बन जाते हैं। इस पाप और पुण्य के बारे में सामान्य व्यक्तियों से लेकर विद्वान तक अनेक चर्चा करते रहते हैं। इस पर वे अनेकों प्रकार के तर्क देते हैं और समीक्षा भी करते रहते हैं।

गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं—जिस काल में मनुष्य मन में स्थित सभी कामनाओं का परित्याग कर देता है और आत्मसंतुष्टि के लिए कर्म करता है, तब उसे स्थितप्रज्ञ जानना चाहिए। जो सर्वत्र आसक्ति से रहित हो जाता है, शुभ समाचार को जान मन में फूला नहीं समाता और अशुभ में दुखी नहीं होता। उसकी प्रज्ञा प्रतिष्ठित है।
ऐसा समझना चाहिए जैसे— कछुआ सब ओर से अपने अंगों को समेट लेता है, वैसे ही जब मनुष्य इंद्रियों के विषयों से, इंद्रियों को सब ओर से हटा लेता है, तब उसकी बुद्धि स्थिर माननी चाहिए। इस स्थितप्रज्ञ मनुष्य की विषयों के प्रति आसक्ति, परमात्मा का साक्षात्कार करके निवृत्त हो जाती है। निष्कर्ष कुछ भी हो, परंतु आसक्ति और अहंता ही पाप का स्रोत है। इसको नहीं झुठलाया जा सकता।

जब यह स्पष्ट है कि आसक्ति हमें सिर्फ भौतिकता और पतन की राह पर ले जाती है, तो ऐसी आसक्ति से मुक्ति में ही जीवन का सार छिपा हुआ है। सब बन्धनों, दबावों तथा समस्याओं से मुक्त होकर स्वतंत्र कर्म करने के लिए आसक्ति से मुक्ति परम आवश्यक है।

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