62. आत्मबल का प्रकाश

श्री गणेशाय नमः

श्री श्याम देवाय नमः

प्रकाश अपने आप में एक पूर्ण शब्द है। यह जीवन का पर्याय है। जीवन में कई बार अनुकूल और सकारात्मक परिस्थितियां होने के बावजूद भी किसी मनुष्य को उचित फल प्राप्त नहीं हो पाता। दरअसल इसका प्रमुख कारण कर्म से ज्यादा आसक्ती में लिप्त होना है। यहां पर मनुष्यों में इच्छाशक्ति और आत्मबल का अभाव परिलक्षित होता है। अक्सर देखने में आता है कि हम राह पर चलने और आगे बढ़ने की बजाय मंजिल के दिवास्वप्न में ही खो जाते है और जिसके परिणाम स्वरूप चलना ही भूल जाते हैं, जो जीवन रुपी यात्रा के लिए बेहद आवश्यक है। उस समय हमारे पास आगे बढ़ने के लिए चाहे लाख संसाधन उपलब्ध हों, परंतु जब चलेंगे ही नहीं, तो लक्ष्य तक पहुंचेंगे कैसे?

अक्सर देखा जाता है कि मनुष्य के अंदर लक्ष्य प्राप्त करने की इच्छा तो बलवती होती है, परंतु उसको प्राप्त करने के लिए कर्म के प्रति हमारा आत्मबल ही कमजोर पड़ जाता है। ऐसे में हमें आत्मबल के प्रकाश की जरूरत होती है। वास्तव में देखा गया है कि जब कर्म का उद्देश्य अंतःकरण से आता है, तब आत्मबल स्वत: सशक्त हो जाता है। फिर उस कर्म के प्रभाव भी निष्कलंक होते हैं। स्वार्थ और छल से रहित कर्म ही वास्तविक कर्म है और आत्मबल इसका प्रेरक है। यदि एक असहाय और दुर्बल- सा व्यक्ति भी कर्मठ और आत्मबल का धनी है, तो वह असाध्य को भी साध सकता है। दशरथ मांझी इसके अद्वितीय उदाहरण हैं। शारीरिक अक्षमता को प्राप्त दिव्यांग भी गजब के एथलीट और खिलाड़ी बन जाते हैं। इसके पीछे जिस जादुई शक्ति का हाथ होता है, वही आत्मबल है।

गुरु नानक देव एक ऐसे ही आत्मबल के धनी व्यक्ति थे। उनके व्यक्तित्व से आत्मबल का प्रकाश हमेशा झलकता रहता था। एक बार गुरुजी जगन्नाथपुरी गए, तो उस समय मंदिर में सायंकाल की आरती हो रही थी। वह आरती में भाग लेने के स्थान पर दर्शकों की कतार में खड़े हो गए। वहां उपस्थित लोग उनकी दिव्य आभा को देखकर समझ गए कि यह कोई परम धर्मात्मा है। लोगों ने उनसे आरती में भाग लेने को कहा तो गुरुदेव जी ने प्रेम पूर्ण भाव से कहा कि— परमात्मा की आरती तो संपूर्ण सृष्टि कर रही है। आवश्यकता है उस व्याप्त विस्माद को जानने की। इस अवसर पर उन्होंने एक शब्द उच्चारित किया। वह शब्द श्री गुरु ग्रंथ साहिब में अंकित है।

गुरुजी ने कहा कि— सारा आकाश आरती के थाल जैसा है। जिसमें सूर्य और चंद्रमा दीपक की तरह प्रकाशित हो रहे हैं। संपूर्ण तारामंडल आरती की थाली में सजे हुए अनमोल मोतियों की भांति शोभा बढ़ा रहे हैं। दक्षिण में मलयगिरी पृर्वतों की श्रृंखला हैं, जिस पर चंदन के वृक्ष उगते हैं। उन चंदन के वृक्षों का स्पर्श करके आने वाली सुगंधित वायु ही धूपबत्ती का कार्य कर रही हैं और मंद पवन का चंवर हिलाया जा रहा है। धरती पर खिले हुए सारे पुष्प आरती की थाली में रखे गए पुष्पों की तरह हैं, जो परमात्मा के चरणों में अर्पित किए जाने वाले हैं। गुरुदेव के द्वारा किया गया आरती का यह वर्णन अद्भुत है।

मानव जीवन का यह परम कर्तव्य है कि वह अपनी ऊर्जा के केंद्र, इस आत्मबल को जागृत करे और आत्मबल की इस शक्ति को पहचानें। शुद्ध, निर्मल और स्वच्छ विचारधारा तथा मन, शरीर, आचरण और व्यवहार आदि का योग आत्मबल के दरवाजे को खोल देता है। कलुषित मन या इच्छा पाप का कारण बनती हैं जो तीव्र इच्छाशक्ति तो उत्पन्न कर सकती हैं, परंतु आत्मबल को क्षीण करती हैं। आत्मसंयम का चरम पायदान आत्मबल की नींव रखता है।

भोग से योग की ओर प्रस्थान ही स्वयं का सशक्तिकरण है और यही आत्मविश्वास का उद्गम भी है। ईश्वर सभी जीवों के अंतर्मन में निवास करता है और उनके प्रकाश से ही सारी सृष्टि प्रकाशित हो रही है। ईश्वर के इस अप्रकट रुप का दर्शन, धर्म के मार्ग पर चलने वाले ही कर पाते हैं। ईश्वर सत्य को धारण करने वालों पर ही अपनी कृपा करते हैं और उनकी भक्ति को ही स्वीकार करते हैं। इसलिए हमें चाहिए कि हम उस ईश्वर से ऐसी प्रार्थना करें जिससे हमारे आत्मबल का प्रकाश चारों ओर फैलनें लगे।

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