64. आत्मचिंतन

श्री गणेशाय नमः

श्री श्याम देवाय नमः

महात्मा बुद्ध ने आत्मचिंतन के विषय में कहा है कि— “मनुष्य जितना अधिक आत्मचिंतन से सीख सकता है, उतना किसी बाहरी स्रोत से नहीं।” आत्मचिंतन की प्रवृत्ति वाला मनुष्य हमेशा अपने दोषों को सूक्ष्मता से देखता है और उनको अपनी आत्मिक शक्ति से दूर भी करने में समर्थ होता है। क्योंकि आत्मचिंतन स्वयं को परखने की प्रक्रिया है। हमारे ग्रंथों में ऋषि-मुनियों ने आत्मचिंतन को स्वाध्याय भी कहा है। यह स्वयं के द्वारा, स्वयं की चिकित्सा है। यह अंतस पर पड़े हुए तामसिक विचारों की परत को अलग कर देती है।

आज के समय भौतिक वस्तुओं का हमारे मानस पटल पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। कर्मों के प्रवाह में बहते हुए हमें उचित और अनुचित का आभास ही नहीं हो पाता। ऐसी विकट परिस्थितियों में आत्मचिंतन ही मनुष्य को मानसिक शांति प्रदान करता है। हमें प्रतिदिन अपना कुछ समय आत्मचिंतन के लिए अवश्य निकालना चाहिए। जिससे हमें अपनी त्रुटियों का बोध होता रहे। आत्मचिंतन से हम स्वयं को जान पाएंगे, समझ पाएंगे और स्वयं से रिश्ता जोड़ पाएंगे।

अक्सर देखा जाता है की हम दूसरों को कहते रहते हैं कि हम उनको समझ नहीं पा रहे हैं कि वे ऐसा क्यों कर रहे हैं? ऐसा क्यों बोल रहे हैं? उनका व्यवहार ऐसा क्यों है? ठीक है, उनको नहीं समझ पाये, कोई बात नहीं, कभी अपने व्यवहार के बारे में सोचा, मैं ऐसा क्यों बोलता हूं? मेरा व्यवहार ऐसा क्यों है? यह तो समझ में आना चाहिए। जब तक हम अपने बारे में नहीं समझ सकते, तब तक किसी दूसरे को समझना बहुत मुश्किल होता है। इसके लिए यह सोचने की भी कोशिश नहीं करनी चाहिए कि वह ऐसा क्यों करता है? क्योंकि हम कितनी भी कोशिश क्यों न करें, हमें दूसरे का आचरण, व्यवहार तब तक समझ में नहीं आएगा, जब तक कि हम खुद को नहीं समझ लेंगे। जब तक हम स्वयं का रिश्ता स्वयं के साथ नहीं जोड़ेंगे, तब तक दूसरों को समझना बहुत ही मुश्किल है। जब हम स्वयं को समझ लेते हैं, तो दूसरे मनुष्य हमें अपने आप समझ में आने लगते हैं। जब हमें यह समझ में आ जाएगा कि हमें गुस्सा क्यों आता है और गुस्से के वक्त हमारे अंदर क्या-क्या घटित होता है, तो दूसरों के गुस्से को भी समझना हमारे लिए आसान हो जाता है और यह होता है आत्मचिंतन से।

आत्मचिंतन से हम अपने आप को अच्छी तरह से जान पाते हैं।आत्मचिंतन से जब हम अपनी मनोस्थिति को शांत, स्थिर, शीतल, संतुलित और सुखमय बना देते हैं, तो हम देखेंगे कि कोई भी परिस्थिति हमें दुखी, परेशान या क्रोधित नहीं कर सकती। हमारा शांत और खुशनुमा चेहरा अपने बिगड़े हुए रिश्तो में सुधार लाएगा और नए रिश्तों को भी सुंदर और मधुर बना देगा। इसलिए अपनी मनोस्थिति को सदा शक्तिशाली, खुशहाल, सकारात्मक व सुखदायी बनाने के लिए कुछ समय अपने लिए निकाल कर परमात्मा का चिंतन अवश्य करना चाहिए। इससे अंतरात्मा को शुद्ध संकल्प, स्फूर्ति और उमंग, उत्साह की ऊर्जा प्राप्त होती है। हमारे मन में व्यर्थ और नकारात्मक विचारों का प्रभाव बंद हो जाता है और आंतरिक बल, क्षमता व प्रतिरोधक शक्ति बढ़ाने वाले सकारात्मक विचार उत्पन्न होने लगते हैं।

आत्मचिंतन करने से आत्मा-परमात्मा की सुखद स्मृति में रहते हुए, कर्म करने से, हर कार्य में कुशलता प्राप्त होती है। इसके नियमित अभ्यास से व्यक्ति की वृत्ति-प्रवृत्ति, स्वभाव- संस्कार सकारात्मक एवं सुखदायी बन जाते हैं और आपसी संबंधों में स्नेह, सद्भाव, मधुरता व सहानुभूति स्वाभाविक रूप में आ जाती है।आत्मचिंतन से जीवन में नई ऊर्जा का संचार होने लगता है। मनुष्य के अंत: करण पर अशुभ कर्मों का जो प्रभाव पड़ता है, आत्ममंथन से उसे अति शीघ्र दूर किया जा सकता है। सांसारिक कार्यों में मनुष्य कई बार इतना तल्लीन हो जाता है कि वह अपने जीवन की सभी खुशियों से वंचित होकर दुखों के अज्ञात बोझ को न चाहते हुए भी लादे फिरता है।

भौतिक जंजाल से ग्रस्त होकर विवेक हिनता के साथ न करने योग्य कार्यों को भी करता जाता है। यह स्थिति मनुष्य के जीवन में दुखों की बाढ ला देती है। हमारी चिंतन परंपरा में आत्ममंथन को साधना के मार्ग का प्रवेश द्वार कहा गया है। आत्मचिंतन से मनुष्य नर से नारायण तथा पुरुष से पुरुषोत्तम की उपाधि को प्राप्त कर सकता है। इसी के द्वारा अंतर्मन में सद्गुणों की संपत्ति का उदय होता है तथा अधोगति की ओर ले जाने वाली तामसिक प्रवृत्तियों पर अंकुश लगता है। आत्मिक चिंतन मनुष्य जीवन को आध्यात्मिक आनंद की अनुभूतियों की ओर ले जाता है।

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