65. निराश व्यक्तित्व

श्री गणेशाय नमः

श्री श्याम देवाय नमः

आज के मशीनरी युग में ज्यादातर व्यक्ति निराशा रूपी अंधकार में डूबे हुए हैं। उनके दिलो-दिमाग पर निराशा रूपी राक्षस ने अपना डेरा जमा रखा है। उनके चारों तरफ का वातावरण निराशा रूपी धुएं से भरा हुआ है, जिसमें से रोशनी की एक छोटी-सी भी उम्मीद भरी किरण दिखाई नहीं देती। उन्होंने अपने आपको समाज से, रिश्ते-नातों से, अलग-थलग कर लिया है। उनके दिलो-दिमाग पर केवल एक चीज हावी है और वह है निराशा। क्योंकि उन्होंने अपने दिमाग में निराशा रूपी बीज को धारण कर लिया है और उनका, उससे बाहर निकलना मुश्किल ही नहीं बल्कि नामुमकिन है।

ऐसे लोग एकांत पसंद होते हैं। उनके भीतर यह सवाल जरूर खड़ा होता है कि- हम कौन हैं? इस दुनिया में क्यों आए हैं? हमारे जीवन का उद्देश्य क्या है? फिर इस सवाल की तलाश में वे अपने अंतर्मन में उलझते रहते हैं। जहां पहले ही निराशा रूपी दानव ने अपना आधिपत्य स्थापित किया हुआ है, जिससे उन्हें केवल निराशा ही हाथ लगती है और वे स्वयं घुटते रहते हैं। थक- हार कर वे बाहर की दुनिया में जवाब ढूंढने की कोशिश करते हैं, तो उन्हें वहां से भी केवल निराशा ही मिलती है, क्योंकि बाहरी दुनिया से तो वे पहले ही नाता तोड़ चुके होते हैं। ये दुनिया तो उनके लिए बिल्कुल निराली है। क्योंकि बाहरी समाज में संबंध,समता, समन्वय, संवाद, सम्मान और सेवा अनिवार्य तत्व हैं। इन्हें ठुकरा कर हम इस समाज में स्थायित्व स्थापित नहीं कर सकते। ये सकारात्मक विचारों वाले व्यक्ति ही कर सकते हैं।

निराशा से भरे व्यक्ति को तो अंधकार के अलावा कुछ दिखाई नहीं देता। ऐसे लोग तो भगवान के घर में जाकर भी नकारात्मक विचारों से ही भरे रहते हैं। कहते हैं कि एक बार संत सूरदास से किसी निराश और हताश व्यक्ति ने पूछा कि- आप रोज भगवान के घर में जाते हो, आप तो देख भी नहीं सकते। फिर भी किस लिए अपना समय बर्बाद करते हो। संत सूरदास ने बड़ा सुंदर जवाब दिया—मैं तो नहीं देख सकता, लेकिन मेरा परमात्मा तो मुझे देख सकता है। मैं वहां इसलिए नहीं जाता कि मैं भगवान को देख सकूं, उसे रिझा सकूं। मैं तो भगवान के चरणों में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने जाता हूं, कि आपने मुझे जो मानव शरीर दिया है, उसका शुक्रिया अदा कर सकूं। उसने फिर प्रश्न किया कि आपको अपने अंधे होने पर भगवान से कोई शिकायत नहीं है। तब संत शिरोमणि ने कहा—कि इसमें भी भगवान का कोई उद्देश्य होगा, वरना बगैर कोई उद्देश्य के वे मुझे अंधा क्यों बनाते। ये सकारात्मक और ऊंचे लोगों के देखने का, सोचने का दृष्टिकोण होता है। जबकि निराशा से भरे व्यक्ति को हर जगह नकारात्मकता का बोध होता रहता है। अपनी नकारात्मक सोच के कारण ही अपनी जिंदगी को बर्बाद करने पर उतारू रहता है।

इस संबंध में एक कथा प्रचलित है—एक बार एक आदमी कुएं पर पानी पी रहा था, तो उसे पानी पिलाने वाली बहन ने मजाक में कह दिया कि तेरे पेट में छोटी सी मछली चली गई। असल में एक छोटा सा पत्ता था, जो कुएं के पास लगे पेड़ से गिरा था। उस आदमी के दिमाग में यह बात बैठ गई, कि मेरे पेट में मछली चली गई। अब मैं ठीक होने वाला नहीं हूं। उस व्यक्ति के परिजनों ने बहुत इलाज करवाया, किंतु वह किसी से भी ठीक नहीं हुआ। तब एक अनुभवी वृद्ध वैद्य ने उस व्यक्ति का पूरा इतिहास सुना और सुनने के बाद उस आदमी को कहा, बेटा तू ठीक हो जाएगा। क्योंकि अब मछली के निकलने का समय आ गया। वैद्य ने उस पानी पिलाने वाली बहन को कहा कि उस आदमी को उसी कुए पर लाकर पुन: पानी पिलाना। जैसे ही वह व्यक्ति अंजलि बनाकर पानी पीने बैठा तो पीछे से किसी ने उसे जोर का थप्पड़ लगाया और कहा कि देखो वह मछली निकल गई। कितनी बड़ी होकर निकली। अगले दिन से वह आदमी धीरे-धीरे ठीक होने लगा। महीने भर बाद वह आदमी एकदम ठीक हो गया।

निराश व्यक्तित्व की यही गलतफहमी होती है -न किसी ने मछली पेट में जाती देखी, न बाहर आते देखी। अगर मनुष्य के दिमाग में कोई बात बैठ जाती है, तो वह असंभव को भी संभव बना देता है। एक बार किसी व्यक्ति को निराशा रूपी अंधकार में ढकेल दीजिए। फिर वह कुछ करने योग्य नहीं रहता। निराशा रूपी राक्षस को आप खुद पैदा करते हैं। आप खुद ही अपने दुश्मन बन जाते हैं।आप अपने आप से ही हार मान लेते हैं। जिससे आपके जीवन में समस्याओं का अंबार लग जाता है। बीमारियां आपको घेर लेती हैं। आप शारीरिक और मानसिक तौर पर टूट जाते हैं। जीवन आपको बोझ लगने लगता है। हर समय उदास और बेचैन रहते हैं। आप धीरे-धीरे अपने जीवन के उद्देश्य से भटक जाते हैं और आप निराशा के अंधकार से बाहर नहीं निकल पाते।

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