69. सन्यास

श्री गणेशाय नमः

श्री श्याम देवाय नमः

आजकल जिसे देखो, सभी सन्यास की ही बातें करते रहते हैं। अपने जीवन से उदास होकर सन्यास धारण करना चाहते हैं। उनके लिए गेरुवे वस्त्र धारण करना ही सन्यास लेना है। लेकिन सन्यास का अर्थ यह नहीं है कि— आप गेरुवे वस्त्र पहन कर, घर- गृहस्थी, परिवार को छोड़कर कहीं दूर एकांत में चले जाएं। सन्यास एक आंतरिक क्रांति है, जो अपने आप को बदलने के लिए प्रेरित करती है और यह भी सच है कि— जितनी सुविधा लोगों के बीच संसार में निवास करते हुए, अपने आप को बदलने की है उतनी हिमालय पर नहीं है। क्योंकि यहां पर अवसर प्राप्त होते हैं, चुनौतियां हैं, संघर्ष हैं, हर मनुष्य जिसे तुम मिलते हो, तुम्हारे भीतर, मन के किसी कोने में रोशनी कर देता है।

सन्यासी बनने के लिए हिमालय पर जाने की आवश्यकता नहीं है। घर में बैठकर भी सन्यास धारण किया जा सकता है। सन्यासी जैसा जीवन जिया जा सकता है। एक सन्यासी के लिए बनाए गए नियमों पर चलकर प्रत्येक मनुष्य सन्यासी बन सकता है। उसे अपने आप से यह संकल्प करना चाहिए की— जो चीजें नहीं देखनी चाहिएं, उन्हें मैं नहीं देखूंगा। जो बातें नहीं सुननी चाहिएं, जिन्हें सुनने से मानसिक अधोगति हो सकती है, उनसे मैं दूर रहूंगा। जो बातें नहीं सोचनी चाहिएं या जिन्हें सोचने से अधोगति हो सकती है। ऐसी बहुत- सी बातें भी मैं नहीं सोचूंगा। यही एक सन्यासी का कर्म है। बहुत सी बातें हमें पता ही नहीं चलेंगी, अगर हम लोगों से नहीं मिलेंगे।

मान लीजिए किसी ने आपको दो कटु शब्द कह दिए, फिर गुस्से में आकर आप उसे मारें-पिटें, तो यह बात ठीक नहीं है। जरा सोचिए अगर गाली देने वाला, तुम्हें मिले ही नहीं, अपमान करने वाला मिले ही नहीं, तो तुम यही सोचोगे कि—तुम्हारे अंदर तो क्रोध है ही नहीं। गाली देने वाला मिलेगा, तभी तुम्हारे भीतर के क्रोध का पता चलेगा। गाली देने वाले ने ही,आत्मदर्शन करने में सहायता की। उसने तुम्हारे एक पहलू को रोशन किया। उसने तुम्हें बताया कि तुम्हारे भीतर क्रोध है। ऐसे समय में तुम्हें अपने मन को नियंत्रण में रखना चाहिए। अपने वचन पर नियंत्रण रखना चाहिए। कोई बात बोलने से पहले एक बार अवश्य सोचिए। क्योंकि एक बार बोली गई वाणी को वापिस लेना संभव नहीं होता। हमें हर परिस्थिति में संयम रखना चाहिए। अपने मन को काबू में रखना चाहिए। यही एक सन्यासी के लक्षण होते हैं।

अब जरा गौर कीजिए, क्या पहाड़ों पर या जंगल में भाग गए, सन्यासी को यह सुविधाएं सुलभ होंगी? वहां पर न तो कोई गाली देने वाला मिलेगा और न ही कोई सम्मान करने वाला, न कोई धन का प्रलोभन देकर तुम्हें, तुम्हारे लक्ष्य से भटकायेगा। वहां पर तो आत्मदर्शन का कोई अवसर ही प्राप्त नहीं होगा। लेकिन यहां संसार में रहते हुए आत्मदर्शन के अवसर हैं। साधना संसार में है। कांटो के बीच जिस दिन तुम चलना सीख लो और तुम्हें कांटे चुभें भी नहीं, बस उसी दिन समझ लेना कि अब तुम सन्यासी होने के योग्य हो गए।

शरीर को पवित्र रखने के लिए स्नान करते हैं अन्यथा अस्वस्थ होते देर नहीं लगती। तीन-चार दिन स्नान मत करो, फिर देखना तुम अस्वस्थ महसूस करने लगते हो। ठीक वैसे ही मन अपवित्र रहने से भी अपने को अस्वस्थ महसूस करने लगोगे। इसलिए शरीर और मन को साफ सुथरा रखना शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए जरूरी है। इसमें हमारा हित छुपा है। जैसे शरीर को गंदा रखने से जल्दी रोग हो जाता है, उसी तरह मन को गंदा रखने से मनुष्य जल्द ही पशु जैसा बन जाता है। इसलिए इस संसार में रहते हुए, जीवन की चुनौतियों को स्वीकार करते हुए, हारने, गिरने, उठने से ही एक सन्यासी की परीक्षा होती है। हजार बार गालियां मिलेंगी। तुम क्रोधित हो जाओगे। हजार बार के अनुभवों से तुम्हें समझ में आ जाएगा कि अपने को जलाना व्यर्थ है। गाली कोई दूसरा दे रहा है, दंड अपने आप को देना व्यर्थ है। एक दिन तो ऐसा आएगा कि कोई दूसरा गाली देगा और तुम्हारे भीतर क्रोध नहीं आएगा। उस दिन तुम्हारे भीतर का एक कांटा फूल बन जाएगा। उस दिन जो शांति मिलेगी, वह किसी पहाड़ या जंगल में नहीं मिल सकती। क्योंकि परमात्मा को पाना है, तो संसार से भागना नहीं। भगोड़ों और कायरों से परमात्मा का संबंध नहीं होता।

अरबपति हेनरी फोर्ड अपने बच्चों को सड़क पर जूता पॉलिश करने भेजता था। उसका कहना था कि अपना जेब खर्च खुद कमाओ। पड़ोसियों ने कहा कि— यह ज्यादती है। यह तुम क्या करवा रहे हो? तो उसने कहा कि—मैंने खुद जूते पॉलिश करके पैसे कमाए हैं। अगर बहुत सुरक्षा मिले और कोई संघर्ष न हो, तो रीढ़ टूट जाती है। तुम जितना ज्यादा संघर्ष करते हो, उतनी ही तुम्हारी रीढ़ मजबूत होती है। इस जगत् में मनुष्य के रुप में आना उसी के लिए सार्थक है, जिसका जीवन एक सन्यासी जैसा हो। जो मनुष्य सन्यासी का जीवन जी रहे हैं, वे इस दुनिया में दोबारा नहीं आते। उनका जन्म दोबारा नहीं होता।

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