71. ईश्वर की कृपा

श्री गणेशाय नमः

श्री श्याम देवाय नमः

परमात्मा महान परोपकारी एवम् दाता है। उसने जीव रचे और जीवन योग्य सभी प्रबंध भी किए। ईश्वर हर किसी के प्रति समान भाव रखता है। उसने आधार देने के लिए धरती बनाई। जीवित रहने के लिए वायु, जल, वनस्पतियां और अग्नि की उत्पत्ति की। यह सब प्रबंध जीवन को सरल और उपयोगी बनाने के लिए किया। मनुष्य के जीवन को सुचारू रूप से चलाने के लिए उन्होंने कुछ नैतिक मूल्य स्थापित किए। मनुष्य ने ईश्वर की जिस रूप में आराधना की, उन्होंने उसी रूप को इस जग में चरितार्थ किया।

ईश्वर भक्तों के लिए भगवान बने, दोस्तों के लिए दोस्त बने, योद्धा के लिए सारथी बने, कमजोरों का सहारा बने, बेजुबानों की आवाज बने, मुसाफिरों के साथी, पद-दलितों के लिए उत्थान का हेतु बनें। थके हुए लोगों के लिए आराम और मृतप्राय के लिए नवजीवन बनकर ईश्वर के हर किरदार को बखूबी निभाया। इस संसार के सभी लोग ईश्वर के बेटे और बेटियों के समान हैं। इस भावना में पूरे मानव समाज को एक परिवार के रूप में देखने व बनाने की कला निहित है। ईश्वर की यही कला “वसुधैव कुटुंबकम” के आदर्श को एक संस्कृति बनाती है। समाज तथा परिवार बनाने के लिए प्रेम, सेवा, भाईचारा, क्षमा, तालमेल और शांति का भाव उत्पन्न किया। ईश्वर ने मानव- मानव और समुदाय- समुदाय के बीच तालमेल के लिए स्वर्णिम नियम दिया। वह है—जैसा व्यवहार आप दूसरों से चाहते हैं, वैसा ही व्यवहार उनके साथ भी करें। उन्होंने मनुष्य और ईश्वर के बीच तालमेल स्थापित किया।

ईश्वर ने एक ऐसी व्यवस्था बनाई, जिसमें मनुष्य को कोई भी कार्य करने के लिए एक- दूसरे के सहयोग की आवश्यकता हो। इस तरह के तालमेल में भाईचारा ही नहीं शांति भी मौजूद होती हैै। शांति इंसान के भीतर ही नहीं, इंसान- इंसान और समुदाय- समुदाय के बीच भी है। इसलिए हमें ऊंच-नीच, छोटा- बड़ा, दोस्त- दुश्मन, अपना-पराया, अमीर-गरीब, भला- बुरा जैसी बचकानी भावनाओं से ऊपर उठकर कमजोरों और कमतरों को आवश्यक रूप से संबल प्रदान करना होगा। यही ईश्वर का प्रमुख संदेश है। ऐसे सार्वभौमिक और सार्वजनिक मूल्यों के जरिए ही मानव समाज का असली और शाश्वत कल्याण हो सकता है। किंतु मनुष्य ने अपने स्वभाव से इन्हें विषमताओं एवं दुख के स्रोत में बदल दिया।

धरती का स्वामी ईश्वर है, किंतु मनुष्य ने उसके अधिकार को भंग करते हुए धरती पर अपना स्वामीत्व जमा लिया। पहले राज्यों ने धरती पर अपनी सीमाएं निर्धारित कर ली, फिर मनुष्य ने। एक तरफ मनुष्य मानता है कि ईश्वर सृष्टि का सृजक है, दूसरी और उसकी धरती पर अपना अधिकार स्थापित करता है। यह ईश्वर से द्रोह नहीं तो और क्या है? जब मनुष्य का अपने जीवन पर कोई अधिकार नहीं, तब धरती पर कैसा दावा। मनुष्य ने धरती पर अनधिकृत स्वामीत्व ही नहीं स्थापित किया, उसका भरपूर दोहन भी किया है। धरती के गर्भ में बहुत कुछ था और है, जिसे मनुष्य ने निकालकर धरती की गुणवत्ता को नष्ट करने का अपराध भी किया है। धरती की ही तरह राष्ट्रों ने वायु और जल की सीमाएं भी बना डाली हैं। वायु और जल की ईश्वर प्रदत्त गुणवत्ता को भी भरपूर नष्ट किया जा रहा है। मनुष्य पहले मूर्खताएं करता है और बाद में उन्हें सुधारने के लिए अपनी शक्ति और बुद्धि का अपव्यय करता है। न मूर्खताएं बंद हो रही हैं न बुद्धि का अपव्यय।

जल और वायु को मनुष्य ही दूषित कर रहा है। फिर उन्हें शुद्ध करने के लिए शोध करता है। कितने ही रोग जल और वायु से पैदा हो रहे हैं। संसार के अधिकांश विवाद धरती से संबंधित हैं। जिसनें करोड़ों लोगों की जानें ले ली हैं। यहां गौर करने वाली बात यह है कि संयुक्त राष्ट्र के “सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल्स” का एक खास संदेश है—किसी को पीछे न रहने दिया जाए। इसका मतलब है कि— कोई पिछड़ा न हो, कोई हाशिए पर न रह जाए। कोई भी व्यक्ति दबा हुआ न रहे। सभी इंसान एक ही ईश्वर की संतान हैं। हर इंसान में ईश्वर की छाया है। इंसान ईश्वर का असली और जीता जागता मंदिर है। हर इंसान सम्मान और इज्जत से जीने लायक है। इंसानों के बीच फर्क नहीं करना चाहिए। ऐसे मुल्यों से ही इंसानियत की गरिमा बनी रहेगी। “वसुधैव कुटुंबकम” की भावना ही ईश्वर-कृपा का मूल आदर्श है। ईश्वर की ऐसी प्रेरणा मानवता की भावनाओं को मजबूत कर, समाज को, परिवार को और बेहतर समाज बनाने के प्रति प्रतिबद्ध हो, यही ईश्वरीय कृपा है।

ईश्वर के प्रति कृतज्ञता का मोल चुकाना ही पड़ता है। जिस तरह मनुष्य सारे ज्ञान और बुद्धिमत्ता के बावजूद अपने जीवन के लिए अंततः ईश्वर की कृपा पर ही आश्रित होता है, उसी भावना से उसे सृष्टि के साथ व्यवहार करना चाहिए। धरती, वायु, जल का महत्व मनुष्य के जीवन काल में उपयोग के लिए होना चाहिए, न कि इसे स्वामित्व की दृष्टि से देखा जाना चाहिए। मनुष्य धरती, जल, वायु का उपभोक्ता संरक्षक तो हो सकता है, किंतु स्वामी नहीं। यही मनुष्य की बहुत सी समस्या का हल है और इससे ईश्वर के दरबार में स्थान भी मिल सकेगा।

2 thoughts on “71. ईश्वर की कृपा”

Leave a Comment

Shopping Cart
%d bloggers like this: