88.कर्मक्षेत्र

श्री गणेशाय नमः

श्री श्याम देवाय नमः

जिस प्रकार पुराणों में वर्णित है कि—ब्राह्मणों का आभूषण विद्या, पृथ्वी का आभूषण राजा, आकाश का आभूषण चंद्र एवं समस्त चराचर का आभूषण शील है, उसी प्रकार मनुष्य का आभूषण उसके कर्म हैं। इस संसार में कर्म ही प्रधान है। इतिहास गवाह है कि भीम, अर्जुन आदि राजपुत्रों ने भी साक्षात् विष्णु के अवतार श्री कृष्ण की शरण में होते हुए भी अपने पूर्व संचित कर्मों के कारण ही राजा धृतराष्ट्र की परवशता के कारण भिक्षाटन करना पड़ा। इस संसार में कौन ऐसा है, किसमें ऐसी सामर्थ्य है, जिसको भाग्य के वशीभूत होने के कारण कर्मरेखा नहीं घुमातीे?

पूर्वजन्म में किए गए कर्म के अनुसार ही हमें दूसरे जन्म में फल मिलता है। इसलिए हम स्वयं अपने भाग्य का निर्माण करते हैं। यह संसार एक गहन अभ्यारण्य में उग आई अनाप-शनाप झाड़ियों के सदृश है तथा प्रत्येक प्राणी इसमें विचरण या निवास करने के लिए विवश एक प्रशिक्षित माली की तरह है। इस बीहड़ एवं सघन अभ्यारण की जटिलताओं एवं विषमताओं से खीझकर वह तथाकथित माली अपने दुर्लभ जीवन को रूग्ण बनाकर, मृत्यु का पर्याय बनकर, स्वयं के जीवन को औरों की दृष्टि में घृणास्पद बनाकर इस जन्म को कलंकित भी कर सकता है, एवं भाग्यफल से मिले इस प्रारब्धरूपी अभ्यारण्य के कर्म क्षेत्र को अपने कर्म- कौशल से सजा- संवारकर एक दुर्लभतम पुष्प एवं जड़ी-बूटी के विशिष्ट उद्यान में भी परिणत कर उसको सभी की जिज्ञासा, अनुसंधान, ज्ञान, रोग हरण औषधियों के अनुपम केंद्र के रूप में भी विकसित कर सकता है।

साधना एवं संघर्ष काल के व्यतीत होने पर वही उद्यान कालांतर में विशिष्ट तपोभूमि बन जगत् के कल्याण एवं ऋषि-मुनियों की साधना भूमि बन जीव के मोक्ष की आधार भूमि भी सिद्ध हो सकती है। पूर्वजन्म में अर्जित की गई विद्या, दिया गया धन तथा सम्पादित कर्म ही दूसरे जन्म में आगे-आगे मिलते जाते हैं। रावण जैसा विद्वान- जिसका दुर्ग त्रिकूट पर्वत पर था, जिसकी ख्याति दसों दिशाओं में थी, जो राक्षसगण से अभिरक्षित था, स्वयं जो परम विशुद्ध आचरण करने वाला था, जिसको नीतिशास्त्र की शिक्षा शुक्राचार्य से प्राप्त हुई थी, वह भी अपने कर्मों के कारण बेबस था।

हमारे कर्मों के कारण ही हमारे जीवन में- जिस समय, जिस दिन, जिस रात्रि, जिस मुहूर्त अथवा जिस क्षण, जैसा होना निश्चित है, वैसा ही होगा। सुंदर नक्षत्र, ग्रहों का योग, स्वयं वशिष्ठ मुनि द्वारा निर्धारित लग्न में विवाह संस्कार कराए जाने पर भी विशाल हृदय वाले श्री राम, शब्द की गति से चलने वाले श्री लक्ष्मण तथा सघन केश वाली शुभलक्षणा श्री सीता जी—ये तीनों भी जब अपने कर्म के अनुसार दुख के भाजन हो गए तो सामान्य जन के विषय में कुछ कहना ही व्यर्थ है। न पिता के कर्म से पुत्र को सद्गति मिल सकती है और न पुत्र के कर्म से पिता को सद्गति मिल सकती है।

पूर्व जन्म में अर्जित कर्मफल के अनुसार ही शरीर में शारीरिक और मानसिक रोग उसी प्रकार आकर अपना दुष्प्रभाव प्रकट करते हैं, जिस प्रकार कुशल वीर धनुर्धरों के द्वारा छोड़े गए बाण लक्ष्य को भेदकर कष्ट पहुंचाते हैं। बाल, युवा तथा वृद्ध जो भी शुभाशुभ कर्म करता है, वह जन्म- जन्मांतर में उसी के अनुसार फल का भोग करता है। उस पूर्व अर्जित फल को न देखने वाला एवं विदेश में रहता हुआ भी मनुष्य अपने कर्मरूपी जहाज के संयमित पवन वेग के द्वारा उस फल तक पहुंचा दिया जाता है। हमें जो इस जन्म में उपहार स्वरूप मिला है, वह अतीत के कर्मों का फल है। आज के कर्म की कृषि भूमि में इस जीवन में बोया गया कर्म का सुविकसित अथवा रूग्ण बीज भविष्य का प्रारब्ध रूपी विटप बन महकेगा।

सुख अथवा दुख हमारे कर्मों के संचित मूलधन रूपी वृक्ष पर फल रूप में ही लगते हैं। बोए गए बीज पर इस जन्म में अथवा जब भी फल लगेगा तो उसी बीज का लगेगा। जिस प्रकार मनुष्य अपने प्रारब्ध का फल प्राप्त करता है, देवता भी उस फल भोग को रोकने में समर्थ नहीं हैं, जिस प्रकार सांप, हाथी और चूहा ये शीघ्रतावश अपने वास स्थान, कुआं तथा बिल तक ही भाग सकते हैं। इससे आगे कहां तक भाग सकते हैं? उसी प्रकार अपने कर्म अथवा भाग्य से कौन भाग सकता है? सब तो उसी परम सत्ता के अधीन हैं। तो क्यों नहीं मनुष्य इस दुर्लभ शरीर को धारण करके सद्कर्मों के कर्तव्य-पथ पर चलता? क्योंकि सद्कर्मों रूपी बेल उसी प्रकार बढ़ती रहती है, जिस प्रकार कुएं से जल ग्रहण कर लेने पर भी कुएं का जल बढ़ता ही रहता है।

प्रार्थना आदि के बिना ही समय आने पर वृक्ष के द्वारा फल-फूल की प्राप्ति हो जाती हैं, उसी प्रकार पूर्व जन्मकृत कर्म भी समय आने पर उचित फल देता है। पूर्व जन्मकृत तप से प्राप्त हुआ उसका भाग्य ही समय के अनुसार वृक्ष की भांति उसे फल देता है। जीव की मृत्यु वहां होती है, जहां उसका हंता विद्यमान रहता है। लक्ष्मी वहीं निवास करती है, जहां संपत्तियां रहती हैं। ऐसे ही अपने कर्म से प्रेरित होकर जीव स्वयं ही उन-उन स्थानों पर पहुंच जाता है। पूर्व जन्म में किया गया कर्म कर्ता के पीछे-पीछे वैसे ही रहता है, जैसे झुंड में हजार गायों के रहने पर भी बछड़ा अपनी माता को पहचान लेता है। हर जन्म में प्राणी अत्यधिक चतुर बन विधाता की कर्म सारणी के बंधनों में चालाकी वश हेर फेर कर खुद को कर्मों की दौड़ में आगे निकाल देना चाहता है, लेकिन वह यह भूल जाता है कि उसका रिमोट उस ईश्वर रूपी मालिक के हाथ में है, जिसके पास उसकी हर चालाकी का लेखा-जोखा बिना भेजे स्वत: ही उसके पास आ जाता है। कर्म भी वह अकेले ही करता है एवं कर्म का फल भी उसे अकेले भोगना है, तो फिर क्यों नहीं वह केवल सत्कर्म करता? सत्कर्म के मनोहारी विटप पर सभी के लिए मृदु,स्वादिष्ट एवं कल्याणकारी फल ही लगता है।।

4 thoughts on “88.कर्मक्षेत्र”

Leave a Comment

Shopping Cart
%d bloggers like this: