89. मौन का महत्व

श्री गणेशाय नमः

श्री श्याम देवाय नमः

आधुनिक जीवन शैली में मौन का महत्व चमत्कार उत्पन्न करने में सक्षम है। जब व्यक्ति दिन भर कार्यों में व्यस्त रहता है तो तनाव के मकड़जाल में फंस जाता है। उसी समय मौन का सामीप्य उस पर मातृवत् प्रेम बरसाता है। कहा गया है -मौन सर्वार्थ साधनम् यानी मौन रहने से सभी कार्य पूर्ण होते हैं। मौन ही जीवन का स्रोत है। मौन दैविय अभिव्यक्ति है। विज्ञान भी मौन के महत्व को प्रमाणित करता है। जब लोग क्रोध के वशीभूत होते हैं तो पहले चिल्लाते हैं और फिर मौन हो जाते हैं। कोई जब दुखी होता है, तब मौन की शरण में जाता है। इसलिए कह सकते हैं कि मौन साधना जीवन को संचालित करने का मूल मंत्र है।

सांसारिक दुश्वारियों व झंझावतों से उपजती मानसिक अशांति और उद्विग्नता आत्मोकर्ष में बाधक हैं। इससे बचने के लिए मौन साधना अचूक उपाय है। जहां शोर उच्च रक्तचाप, सरदर्द और हृदयरोग इत्यादि देता है वहीं मौन इन सबके लिए औषधि का कार्य करता है। मौन ही है जो हमारे चिंतन को विराट् स्वरूप प्रदान करता है। मौन के द्वारा ही चित्तवृत्ति को विचलित होने से बचा सकते हैं। उसे स्थिर आत्मा में रमण करा कर आत्मिक शांति और बल पा सकते हैं।
महर्षि पतंजलि योग सिद्धांत में बताते हैं कि—उथल-पुथल के वातावरण में मौन साधना से शरीर के मूलाधार से लेकर सहस्त्रार तक के सभी षट्चक्र प्राकृतिक ऊर्जा संग्रह करने लगते हैं।
मौन व्रत की दो श्रेणियां बताई गई हैं।
पहला, वाणी का मौन और दूसरा, मन से मौन।
वाणी को वश में रखते हुए कम बोलना या नहीं बोलना बाहृय मौन और मन को स्थिर रखना, बुरे विचार न लाना, आत्मतत्व में लीन होकर अध्यात्म विचार करना अंत: मौन है।
संतों-मुनियों व ऋषियों-महर्षियों ने अंत: मौन धारण किया। उनके अनुसार आत्मिक दृष्टि से मौन महत्वपूर्ण साधन है। मौन साधना चित्त-वृत्तियों को बिखरने से बचाती हैै। चुप रहने से वाणी के साथ व्यय होने वाली मानसिक शक्ति की बचत होती है। इस बचत को आत्मचिंतन में लगाकर सुखद- शीतल और स्निग्ध शांति तक पहुंचा जा सकता है। इससे नवीन चेतन्यता स्फूर्ति और जीवन-शक्ति प्राप्त होती है। जो कार्य क्षमता, सूक्ष्मदर्शिता और प्रतिभा को कई गुना बढ़ा देती है।

मौन में वह ताकत होती है जो अंतर्शक्ति को जगाने का सामर्थ्य रखती है। जीवन में उपलब्धियां अर्जित करने के लिए मौन- साधना अनुकरणीय है। जो व्यक्ति जीवन में निरंतर सत्य का शोध कर रहा हो, वह मौन साधना का ही पथ पकड़ता है। वास्तव में मौन साधना की अध्यात्म- दर्शन में बड़ी महत्ता बताई गई है। इसलिए जितना जरूरी है, उतना ही बोलो। शब्दों में बहुत ऊर्जा है, उसे व्यर्थ न गंवाएं। हालांकि बहुधा ऐसा देखने को मिलता है कि आपके मुख से निकले कुछ शब्द आपके लिए अप्रिय स्थिति उत्पन्न कर सकते हैं। ऐसी स्थितियों के लिए ही मौन की महत्ता बताई गई है।

कहा भी गया है कि- वाणी का वर्चस्व रजत है, किंतु मौन कंचन है। हम कितना ही अच्छा व श्रेष्ठ क्यों न बोल दें, वह केवल और केवल रजत की श्रेणी में आता है। परंतु व्यक्ति का मौन स्वर्ण है। कहते हैं कि महात्मा बुद्ध को जब बोद्ध प्राप्ति हुई, तो सात दिनों तक मौन ही रहे। मौन समाप्त हुआ तो उनके शब्द थे—जो जानते हैं, वे मेरे कहे बिना भी जानते हैं और जो नहीं जानते, वे मेरे कहने पर भी नहीं जानेंगे। जिन्होंने जीवन का अमृत ही नहीं चखा उनसे बात करना व्यर्थ है। इसलिए मैंने मौन धारण किया था। जो कुछ बहुत आत्मीय व व्यक्तिगत हो, उसे कैसे व्यक्त किया जा सकता है। फिर भी बुद्ध जब भी बोले उनके मुख से निकले शब्दों ने मौन का सर्जन किया, क्योंकि बुद्ध मौन की प्रतिमूर्ति है।

संत कबीर कहते हैं —

“माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर। कर का मनका डार दे,मन का मनका फेर।।”

अभिप्राय यह है कि— जो व्यक्ति माला हाथ में लेकर लंबे समय तक उसके मोतियों को फेरता है उसके मन के भाव नहीं बदलते, मन की हलचल नहीं शांत होती। अतः हाथ की इस माला को फेरना छोड़कर मन के मोतियों को फेरो। कहने का अर्थ यह है कि उसका अंतरात्मा से संसर्ग कराओ।
श्रीमद् भगवद् गीता में भगवान श्रीकृष्ण मौन को अपना स्वरूप ही नहीं बताते, बल्कि स्वयं को गोपनीय विषयों में मौन भाव भी कह जाते हैं। महर्षि व्यास के वचनों को लिपिबद्ध कर पुराण रचने का पुरुषार्थ गणेश जी मौन साधना के बूते ही संभव कर दिखाते हैं। लंबी अवधि तक यह साधना पुरुषार्थ न निभाया गया होता, तो साहित्य सर्जन भी संभव न होता।
हमारे शास्त्रों में कहा गया है कि—मौन रखकर स्नान ध्यान करने से सहस्त्र गोदान का पुण्य फल प्राप्त होता है। उनके अनुसार कोई भी धार्मिक कार्य मनसा -वाचा -कर्मणा से ही करने पर पूर्ण होता है। इसमें वाचा-कर्मणा की धूरी मनसा है। जैसा मन होगा, वैसा वचन और कर्म होगा। अनमने तरीके से किया गया कोई अनुष्ठान- विधान पूर्ण नहीं माना जा सकता। अतः इसमें मन की शुद्धि जरूरी है। यह तभी पूरा होगा, जब मन शांत हो, एकाग्र हो, जो मौन से ही संभव है। भौतिक जगत् भले ही शब्दों का प्रवाह रोक लेने, न बोलने को मौन कहता हो, लेकिन वास्तव में यह पांचों इंद्रियों को एकाग्र करने की साधना है। जिसमें कुविचारों के प्रवाह को रोकने के लिए बांध- बांधना है। इंद्रिय संयम का सबसे अच्छा उपाय मौन ही माना गया है। मौन जिसने साध लिया, सारी इंद्रियों को वश में करते हुए जितेंद्रिय कहलाया।

वस्तुत: मौन साधना का मूल अर्थ है—ऊर्जा संचयन, जिसे हम अपनी विद्वता जताने के फेर में शब्दों के जरिए गंवाते जाते हैं। कोलाहल पूर्ण वातावरण में हम पास के शब्द नहीं सुन पाते, लेकिन मौन होते ही नि:स्तब्ध वातावरण में सुदूर की ध्वनियां भी सहजता से सुन पाते हैं। ऐसे ही अशांत, उद्गिन मन अंतरात्मा की आवाज भला कहां सुन पाएगा? मौन साधना मन को ही नहीं, अंतरात्मा को भी स्फूर्ति और नवचेतना प्रदान करती है। मौनावस्था में अतीत के अनुभवों के तार जुड़ते हैं और सद्विचार का सर्जन होता है। इससे व्यक्ति अध्यात्म की ओर मुड़ता है और अंतःकरण निखार पाता है। इससे आत्मा की ध्वनि को सुनने की क्षमता विकसित होती है, जिससे परमात्मा तक पहुंचने का रास्ता स्वत: ही बनता जाता है।

मनुष्य प्राचीन काल से ही अभिव्यक्ति के विभिन्न माध्यमों का प्रयोग करता आ रहा है। यहां तक कि जब वह भाषा या शब्द भी नहीं जानता था, तब भी उसे अपनी भावनाएं व्यक्त करना आता था। उसने अपने अस्तित्व का बोध कराने के लिए तमाम उपक्रम किए। कभी वह दीवारों पर चित्रों के माध्यम से अपनी बात कहता, तो कभी अजीब- सी आवाजें निकालता। काल की गति के साथ-साथ उस में कई बदलाव आए। उसने भाषा सीखी। बोलना सीखा। चीखना- चिल्लाना भी सीख लिया। आधुनिक समय में तो अभिव्यक्ति के दर्जनों माध्यम हैं। सोशल मीडिया के इस युग में विभिन्न बातें रोचक तरीके से कही जा रही हैं। वे कुछ ही क्षणों में प्रसारित होने में सक्षम हैं। ऐसे में हमें मौन साधना की बड़ी आवश्यकता होती है। अगर हम प्रतिदिन कुछ घंटे मौन के शरणागत होते हैं, तो वह हमें रचनात्मकता प्रदान करता है। हमारी स्मरणशक्ति को बढ़ाता है। हमें ऊर्जा से भर देता है। मौन की साधना, साधक को अनेकों वरदान प्रदान करती है।।

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