श्री गणेशाय नमः
श्री श्याम देवाय नमः
एक यात्रा जन्म से प्रारंभ होकर, उसकी मृत्यु पर समाप्त होती है। आत्मा की यात्रा अनंत है, क्योंकि आत्मा अजर- अमर है। लेकिन शरीर की यात्रा काल खंडों में विभक्त है। जीवन- मृत्यु से अभिप्राय यहां शरीर की यात्रा से है। शरीर ही जन्म लेता है और शरीर ही मरता है। आत्मा न तो जन्म लेती है और न ही मरती है। वह तो केवल शरीर बदलती है। हम यह भी कह सकते हैं कि— शरीर रथ है और आत्मा उसकी सारथी। इस शरीर रथ पर विद्यमान मन, चित्त, बुद्धि महारथी हैं। आत्मा सदैव मन को समझाती है, चित्त को सुलझाती है और बुद्धि को मनाती है। लेकिन अज्ञानता के कारण मन भ्रम के, चित्त मोह के और बुद्धि अहंकार के रथ पर आरूढ़ हो जाती है। आत्मा की पुकार तो कहीं शुन्य में ही विलीन हो जाती है।
मृत्यु सबसे बड़ा सत्य है। इस सच्चाई से कोई भी मनुष्य अनभिज्ञ नहीं है। फिर भी यह सब जानते हुए भी मनुष्य मिथ्याभिमानी बनकर अनुचित कर्मों में लिप्त रहता है। जबकि मृत्यु प्रतिपल मनुष्य को दुर्लभ मानव जीवन का अहसास कराते हुए उसे, प्रत्येक क्षण का सदुपयोग करने तथा सत्कर्म करने की सीख देकर शिक्षिका का दायित्व निभाती है। शास्त्रों में बार-बार आग्रह किया है कि —हे मानव! तुम अजर- अमर हो। यह समझ कर विद्या का अर्जन करो तथा मृत्यु किसी भी क्षण हो सकती है, यह सोचकर धर्म का आचरण करो। विद्या और धर्म मानव जीवन की सफलता के लिए कितने जरूरी हैं, यह कथन इस बात का प्रमाण है। इससे यह सिद्ध होता है कि जिस तरह मृत्यु इस दुनिया का सच है, उसी तरह विद्या और धर्मांचरण इस जीवन का सत्य है।
जीवन मृत्यु अनुगामी एवं प्रतिगामी में अवस्थाएं हैं। आना और जाना अनिवार्य प्रक्रिया है। सभी जीव- जंतु इस नियम से बंधे हुए हैं। जिस तरह मृत्यु कभी जीवन की दुहाई नहीं देती, उसी तरह जीवन भी मृत्यु की प्रतीक्षा नहीं करता। मृत्यु की परीक्षा है, जीवन। यह जीवन- मृत्यु के बीच आंख मिचौली का खेल मात्र है। जन्म और मृत्यु के बीच संघर्ष चलता रहता है। जब- जब मनुष्य का जन्म होगा, तब-तब मृत्यु भी निश्चित है। जन्म और मृत्यु के बीच संघर्ष ऐसे ही चलता रहेगा, जब तक मोक्ष की प्राप्ति नहीं होगी। संघर्ष का नाम ही है— जीवन। इस संघर्ष से शरीर कभी नहीं ऊबता। शरीर की क्षमता क्षीण होती जाती है और एक दिन शुन्य पर पहुंच जाती है यानी शरीर निर्जीव हो जाता है। शरीर रथ घिसटता, सिमटता एवं टूटता- फूटता अपने पराभाव को प्राप्त हो जाता है।
मृत्यु भय और संत्रास की जन्मदात्री नहीं बल्कि सत्पथ की पथ प्रदर्शिका है। सुखी एवं समृद्ध जीवन की आधारशिला है। जिसके बिना जीवन का वास्तविक आनंद भी अधूरा है और उद्देश्य भी। मृत्यु प्रत्येक व्यक्ति को स्वर्णिम अवसर प्रदान करती है कि— यदि वह चाहे तो उससे प्रेरणा लेकर एक बेहतर जीवन का निर्माण कर सकता है। जीवन को उत्साह और उमंग के साथ जीने का अर्थ तभी है, जब शरीर में विद्यमान आत्मा को अनुभव किया जा सके। मन का अनुशासन, चित्त की स्थिरता और बुद्धि का मंथन, आत्मा के दर्शन में सहायक है। जीवन के बाद मृत्यु निश्चित है। परंतु मृत्यु के बाद जीवन निश्चित नहीं। इस जीवन को अमर बनाना हो तो मानवता के लिए शरीर को न्यौछावर कर देना ही परम कर्तव्य है।