105. प्रेम की महत्ता

श्री गणेशाय नमः

श्री श्याम देवाय नमः

प्रेम एक शाश्वत भाव है। प्रकृति के कण-कण में प्रेम समाया हुआ है। प्रेम की ऊर्जा से ही प्रकृति निरंतर पुष्पित, पल्लवित और फलित होती है। हमारा प्रत्येक संबंध प्रेम के भाव से ही समृद्ध होता है। प्रेम वह शब्द है जिसकी व्याख्या असंभव है, परंतु जीवन का सौंदर्य इसी में निहित है। किसी भी संबंध को मजबूत बनाने के लिए उसमें प्रेम होना अति आवश्यक है। संबंध का आरंभ भले ही आकर्षण से होता है। जिसके प्रति आकर्षण हो जाता है, यदि आप आसानी से उसे प्राप्त कर लेते हैं तो आकर्षण समाप्त हो जाता है, किंतु यदि प्राप्ति में बाधा उत्पन्न होती है तो उसके प्रति प्रेम का जन्म होता है।

संबंधों में प्रेम आवश्यक है, मात्र आकर्षण नहीं। आकर्षण में आक्रामकता है जबकि प्रेम में समर्पण है। वास्तव में देखा जाए तो हम संबंधों में प्रेम को सदैव एक भावना के रूप में देखते हैं। अगर हमें किसी के प्रति आकर्षण हो जाता है तो उसे यही कहते हैं, मैं तुमसे बहुत प्रेम करता हूं और फिर प्रेम में बंधन शुरू हो जाता है, जिससे प्रेम नष्ट हो जाता है। प्रेम का आनंद दूर हो जाता है, प्रेम कोई भावना नहीं है बल्कि यह आपका अस्तित्व है।

प्रेम के विषय में गौतम बुद्ध ने कहा है कि— इस संपूर्ण जगत् में जितना कोई ओर तुम्हारे प्रेम और अनुराग का भागी है, उतना ही तुम स्वयं हो। वास्तव में प्रेम वह शब्द है जिसकी व्याख्या असंभव है, परंतु जीवन का सौंदर्य इसी में निहित है।
किसी भी संबंध को शाश्वत बनाने के लिए उसमें प्रेम होना नितांत आवश्यक है। आपने अक्सर सुना होगा कि — लोग कहते रहते हैं कि कोई भी मुझे नहीं समझता। आपको समझ भी कैसे सकता है, जब तक आप स्वयं को नहीं समझोगे। सबसे पहले हमें अपने आप को समझना होगा। अपने आप से प्यार करना होगा, जब हम स्वयं से प्यार करने लगेंगे, तभी हम दूसरों को समझने लगेंगे। अक्सर ऐसा होता है कि हम स्वयं को ही नहीं समझ पाते। ऐसे में यदि आप एक व्यक्ति के सामने दूसरी भाषा बोलने लगें जो उसको समझ नहीं आती तो वह आपको कैसे समझेगा?आपको उसके सामने वह भाषा बोलनी चाहिए जो वह समझता है। जब आप स्वयं को दूसरे व्यक्ति के नजरिए से देखते हैं, तभी दूसरे का अवलोकन कर सकते हैं। कहने से अभिप्राय है कि जब आप दूसरों से प्रेम करेंगे तभी वह आपको प्रेम करेगा। अगर आप दूसरों का सिर्फ निरीक्षण और अवलोकन करते रह जाएंगे तो आपको प्रेम कहां से मिलेगा, फिर आप कैसे जान पाएंगे कि प्रेम की महत्ता क्या है?

रविंद्रनाथ टैगोर कहते हैं— प्रेम केवल एक भावना नहीं, एकमात्र वास्तविकता है। यह सृष्टि के हृदय में रहने वाला अंतिम सत्य है।
विडंबना यह है कि जब आप प्रेम को प्राप्त करते हैं तो आप सम्मान की खोज में रहते हैं। सम्मान को प्राप्त करना चाहते हैं। जब आपको सम्मान मिल रहा होता है तो वहां पर आप प्रेम की तलाश करते हैं। लेकिन प्रेम एक ऐसा शब्द है जिसमें प्रकृति की भावनाएं समाहित रहती हैं। प्रेम एक ऐसी नदी है जो कभी समाप्त नहीं होती। प्रेम की डोर को पकड़कर हम ईश्वर तक पहुंच सकते हैं और उनसे साक्षात्कार कर सकते हैं। जिसने प्रेम की महत्ता को समझ लिया उसे कुछ और जानने-समझने की आवश्यकता नहीं रहती। प्रेम अत्यंत सुकोमल भाव है।

अटूट प्रेम के लिए कुछ भावों का होना भी जरूरी है। ईमानदारी, परस्पर समझदारी, समर्पण भाव, एक- दूसरे के प्रति सम्मान जैसे श्रेष्ठ तत्व सार्थक प्रेम के आधारभूत अंग होते हैं। प्रेम तभी प्राप्त किया जा सकता है, जब हम अपनी सभी जिम्मेदारियों को ठीक से पूरा कर सकें। प्रेम एक- दूसरे को सम्मान देने से है। यह हमें एक- दूसरे के करीब लाता है। अगर हम किसी भी रिश्ते को निभाना चाहते हैं तो प्रेम उसे खूबसूरत बनाने का सामर्थ्य रखता है। एक प्रेम ही है जो हमारे जीवन के तमाम कष्टों को दूर करने की क्षमता रखता है। ऐसे में हमें प्रेम की महत्ता को समझना चाहिए और अपने जीवन में इन भावों को धारण करके अपने जीवन के साथ-साथ दूसरों के जीवन को भी संवारना चाहिए।

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