109. कर्म फल

श्री गणेशाय नमः

श्री श्याम देवाय नमः

श्रीमद्भागवत में कहा गया है कि— हमारे प्रत्येक कर्म के बहुत से साक्षी हैं, दिशाएं साक्षी हैं, सूर्य साक्षी है, चंद्रमा साक्षी है, हमारी अपनी आत्मा साक्षी है। आपने अक्सर देखा होगा कि नगरों में कई जगह कैमरे लगे होते हैं और लिखा रहता है कि— आप कैमरे की निगाह में हैं और यह पढ़कर हम एकदम से चौकनें हो जाते हैं और कोई ऐसी हरकत नहीं करते, जिससे हम कैमरे की नजरों में गलत साबित हो सकें तो ऐसे समय में हम अपना प्रत्येक कर्म बहुत सावधानी से करते हैं लेकिन जैसे ही हम कैमरे से दूर हो जाते हैं, तब हम यही समझते हैं कि अब हमें कोई नहीं देख रहा इसलिए हम कुछ भी कर सकते हैं, लेकिन हम यह भूल जाते हैं कि ईश्वर ने भी हमारे ऊपर बहुत सारे कैमरे लगा रखे हैं जो हमारे हर क्षण की रिकॉर्डिंग कर रहे हैं।

जब मनुष्य जन्म लेकर इस संसार में आता है तो वह एक छोटा बच्चा होता है जो ज्ञान प्राप्त करने के लिए स्कूल में जाता है। जहां पर उसी के समान अपने- अपने कर्मों और संस्कारों के अनुसार और बच्चे भी कक्षा में होते हैं, तब गुरु उन्हें शिक्षित करता है और जीवन में आगे बढ़ने की शिक्षा देता है, ठीक उसी प्रकार हमारा जीवन एक भरी- पूरी कक्षा की तरह है। जिसमें भांति- भांति के जीव रूपी विद्यार्थी जन्म- जन्मांतर के अपने कर्म व संस्कारों को लेकर कुछ नया प्राप्त करने, सीखने व अर्जित करने के लिए प्रारब्ध रूपी गुरु से शिक्षा प्राप्त करने के लिए आते हैं। जिस प्रकार एक गुरु अपने सभी शिष्यों को समान रूप से शिक्षा देता है, उसी प्रकार ईश्वर रूपी गुरु अपनी कक्षा में उपस्थित सभी शिष्यों को समान रूप से प्रेम पूर्ण शिक्षित करते हैं। उन्हें एक ही तरह का ज्ञान, दान, दीक्षा व जीवन में संघर्ष करने के लिए संजीवनी रूपी ज्ञान प्रदान करते हैं। सभी अपनी क्षमता व कर्मानुसार उसको गृहण करते हैं तथा नियति के अनुरूप उसका फल प्राप्त करते रहते हैं।

गुरु द्वारा प्राप्त ज्ञान और शिक्षा से कोई राष्ट्रनायक बन जाता है तो कोई वैज्ञानिक, इंजीनियर, शिक्षक या कोई चोर बन जाता है। गुरु ने तो सभी शिष्यों के साथ समता का व्यवहार किया था और सभी को एक जैसी ही शिक्षा प्रदान की थी, फिर ऐसा क्यों होता है? यह सब अपने-अपने कर्मों का फल होता है जो प्रारब्ध से जुड़े हुए होते हैं। गुरु, शिष्य के मस्तिष्क का परिमार्जन कर सकता है। उसे सही और गलत का बोध करा सकता है। ईश्वर तक पहुंचने का मार्ग प्रशस्त करा सकता है। वैचारिक शुद्धिकरण कर सकता है, लेकिन कर्म व नियति के फलस्वरूप प्रत्येक के लिए नियत कर्मफल में परिवर्तन नहीं कर सकता।

अपने पूर्व जन्मों के कर्म- संचय की पूंजी व क्षमता के अनुसार ही प्रत्येक शिष्य की गुणधर्मिता व धारण क्षमता सुनिश्चित होती है। गुरु तो केवल अपनी निष्पक्ष प्रवृत्ति से उन्हें दीक्षा दे सकता है। उन्हें ज्ञानार्जन की उपलब्धि तो उनके कर्मानुसार ही होती है। जिस प्रकार दक्ष कुम्हार चाहने पर भी प्रत्येक पात्र को एक जैसा आकार नहीं दे सकता, उसी प्रकार जन्म- जन्मांतरों के विविध गुणवत्ता वाले कर्म फल लेकर उपस्थित हुए हम सभी में से भी गुरु सभी को उत्कृष्ट पात्रों के रूप में भी नहीं तराश सकते। जीवन एक परीक्षा है। परेशान होकर हम इसका समाधान नहीं कर सकते। प्रत्येक जीव का अपना एक नियत कर्म व प्रारब्ध है। हमारे कर्म और प्रारब्ध हमारे कर्मों के अनुसार परिवर्तित होते रहते हैं। हमारे कर्म फल में कोई भी हस्तक्षेप नहीं कर सकता, स्वयं हम भी, तो फिर हम क्यों चिंता करें? क्यों नहीं, हम ईश्वर का स्मरण करते हुए अपने कर्म फल को उसी परमेश्वर पर छोड़ देते?

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